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________________ 234 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन होता है, जिसमें योगों को उत्तम समाधान प्राप्त हो। ध्यान के लिए दिन, रात, क्षण, घड़ी आदि का कोई नियम नहीं है। आसन जैन-परम्परा में ध्यान के लिए किसी आसन विशेष पर बैठने का कोई नियम निर्धारित नहीं है। अपितु जिस आसन (स्थिति विशेष) में ध्यान करना सलभ हो, उसी को ध्यान के लिए उपयुक्त बताया गया है। इस अभिमत के अनुसार ध्यान खड़े होकर, बैठकर अथवा लेटकर – तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता आलम्बन जैनशास्त्रों में ध्यान रूपी शिखर पर चढ़ने के लिए चार आलम्बन बताए हैं - १. वाचना, २. प्रच्छना, ३. परिवर्तना, ४. अनुप्रेक्षा। सूत्रादि का पठन-पाठन 'वाचना' है। सूत्रादि में शंका होने पर निवारण हेतु प्रश्न पूछना 'पृच्छना' है। पढ़े हुए सूत्रादि की पुनः पुनः आवृत्ति करना 'परिवर्तना' है। सूत्रार्थ का चिन्तन-मनन करना 'अनुप्रेक्षा' है। उपा० यशोविजय ने इन चारों आलम्बनों के साथ क्रिया (प्रत्युपेक्षणादि) सद्धर्म (उत्तम क्षमादि परिणाम रूप धर्म) तथा आवश्यक (सामायिक आदि) क्रिया को भी आलम्बनों में परिगणित किया है। उनके मत में सूत्रादि आलम्बनों का आश्रय लेने से योगी सद्ध्यान पर आरूढ़ हो जाता है और उसका कभी पतन नहीं होता। क्रम अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान-साधना के अनेक क्रम हो सकते हैं। जैनाचार्यों ने ध्यान के क्रम का विचार करते हुए धर्मध्यान के साथ शुक्लध्यान के भी क्रम का निरूपण कर दिया है। उनका अभिमत है कि केवलज्ञानी में मन के निरोध आदि से लेकर ध्यान की प्रतिपत्ति तक एक निश्चित क्रम होता है, किन्तु जो केवलज्ञानी नहीं है ऐसे धर्मध्यानियों को यथायोग्य (अपनी-अपनी योग्यतानुसार) समाधान करना चाहिये। ध्यातव्य ध्यान करने योग्य पदार्थ, वस्तु और आलम्बन अर्थात् विषय जिनका ध्यान किया जा सके, चित्त को एकाग्र किया जा सके, ध्यातव्य या ध्येय कहे जाते हैं। आ० हरिभद्र ने ऐसे आलम्बन रूप ध्येय दो प्रकार के बताए हैं - रूपी और अरूपी। अर्हन्त व उसकी प्रतिमा 'रूपी' आलम्बन है, जबकि सिद्ध परमात्मा के केवलज्ञानादि रूप गों की परिणति रूप आलम्बन 'अरूपी' है। आ० शुभचन्द्र ने पिंडस्थादि १. २. ॐ अध्यात्मसार, ५/१६/२८ ज्ञानार्णव, २६/११; योगशास्त्र, ४/१३४ अध्यात्मसार,५/१६/२६ भगवती आराधना, १७१०. १८७५ स्थानांगसूत्र, २४७; ध्यानशतक, ४२ वाचना चैव पृच्छा च, परावृत्यनुचिन्तने । क्रिया चालम्बनानीह, सद्धर्मावश्यकानि च ।। - अध्यात्मसार, ५/१६/३१ अध्यात्मसार,५/१६/३२-३३ वही.५/१६/३४; ध्यानशतक, ४४ (क) आलंबणं पि एयं, रूविमरूवी य इत्थ परमु त्ति । तग्गुणपरिणइरूवो, सुहुमोऽणालंबणो नाम || - योगविंशिका, १६ (ख) षोडशक, १४/१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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