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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
से कुछ वृत्तियाँ प्रकाशित हैं और कुछ अप्रकाशित। उदाहरणतः भोजदेव कृत राजमार्तण्ड, नारायणतीर्थ कृत सूत्रार्थबोधिनी, अनन्तदेव पण्डितकृत पदचन्द्रिका, नागेशभट्टकृत योगसूत्र- लघ्वीवृत्ति, नागेशभट्ट कृत योगसूत्र- बृहतीवृत्ति, भावागणेशकृत योगसूत्रवृत्ति (योगदीपिका), नारायणतीर्थकृत योगसिद्धान्तचन्द्रिका, सदाशिवेन्द्र सरस्वतीकृत योगसुधाकर, यशोविजयकृत योगसूत्रवृत्ति, उदयंकरकृत योगसूत्रवृत्ति (अप्रकाशित), रामानन्द सरस्वतीकृत मणिप्रभा, क्षेमानन्द दीक्षितकृत नवयोगकल्लोलवृत्ति अप्रकाशित, ज्ञानानन्दकृत योगसूत्रवृत्ति, भवदेवकृत अभिनव भाष्य (अप्रकाशित), भवदेवकृत योगसूत्रटिप्पण, महादेवकृत योगसूत्रवृत्ति, रामानुजकृत योगसूत्रभाष्य, वृन्दावन शुक्लकृत योगसूत्रवृत्ति (अप्रकाशित), शिवशंकरकृत योगसूत्रवृत्ति, शंकर भगवत्पादकृत पातञ्जलयोगसूत्रभाष्य-विवरणम्, राधानन्दकृत पातञ्जलरहस्यप्रकाश, उमापति मिश्र प्रणीत योगसूत्रवृत्ति (अप्रकाशित), स्वामी हरिप्रसादकृत योगसूत्र- वैदिकवृत्ति, बलदेव मिश्रकृत योगप्रदीपिका.. गोपाल मिश्रकृत योगसूत्रवृत्ति, उदयवीर शास्त्रीकृत विद्योदय भाष्य, स्वामी दर्शनानंद कृत योगसूत्रभाष्य, स्वामी तुलसीरामकृत योगसूत्रभाष्य, तथा वृन्दानन्द शुक्लकृत वृत्ति आदि ।
हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रचलित राजभाषाओं में योगसूत्र का अनुवाद तथा विवेचन हुआ है । अंगेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में भी योगसूत्र का अनुवाद किया गया है। इनमें वुडस्कृत भाष्य एवं टीका सहित मूल योगसूत्र का अनुवाद विशिष्ट है।
उपर्युक्त विवेचन से पातञ्जलयोग साहित्य की समृद्धि का कुछ अनुमान किया जा सकता है।
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५. जैनयोग- साहित्य
जैनयोग की परम्परा एवं विकासक्रम को जानने के लिए जैनयोग संबंधी प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना उचित होगा । आगमयुग से लेकर वर्तमानयुग तक के संपूर्ण काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
१.
आगमयुग
२.
मध्ययुग अर्वाचीनयुग
ई० पू० छठी शती से ७वीं शती ई० ई० ८वीं शती से १४वीं शती १५वीं शती से वर्तमान काल तक
३.
उक्त तीन कालों में रचित साहित्य रचना का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है आगम-युग (प्राचीन काल ) - ( ई० पू० छठी शती से सातवीं शती ई०)
आगम-युग में मुख्यतः तप और ध्यान पर ही आध्यात्मिक साधना अवलम्बित थी । अतः उस युग में हुई योग संबंधी साहित्य की रचना पर आगम-शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उक्त काल में पातञ्जलयोगसूत्रसम्मत अर्थ में 'योग' शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं हुआ था । प्रमुखतः सामान्य व्यापार (कायिक, वाचिक और मानसिक) के अर्थ में 'योग' शब्द का प्रयोग होता था ।' यद्यपि जैनागमों में 'योग' शब्द यत्र-तत्र ध्यान, समाधि आदि यौगिक साधनों के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है, किन्तु वह सामान्य साधनापरक है। इस युग में हुई रचनाओं का वर्णन इस प्रकार है
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जैनागम साहित्य में आत्मोन्मुखी साधना की प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है, जिसे 'जैनयोग' का प्रारम्भिक रूप माना जा सकता है। जैनागमों में 'योग-साधना' के अर्थ में 'ध्यान' शब्द प्रयुक्त हुआ है। कुछ आगम
१. कायवाङ्मनः कर्मयोगः । - तत्त्वार्थसूत्र. ६ / १
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