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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
तो अपने से पूर्व प्रचलित समस्त साधना-पद्धतियों को समन्वित करके उनकी दार्शनिक समीक्षा की है तथा यत्र-तत्र बिखरे हुए योग-सम्बन्धी विचारों, सिद्धान्तों तथा पद्धतियों को एक व्यवस्थित रूप प्रदान किया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने संक्षेप से योग के महत्व को प्रकट करते हुए उसकी सांगोपांग प्ररूपणा की है।
योगसूत्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सुख-दुःख रूप कर्मबन्धन और उसके परिणामस्वरूप जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलाकर आत्म-कल्याण का सीधा, सच्चा और क्रियात्मक मार्गदर्शन कराना है।
१६५ सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य नामक पाद-चतुष्टय में विभक्त है। प्रथम समाधिपाद में योग का लक्षण, लक्षणस्थ पदों का विवेचन, योग का उद्देश्य, चित्तवृत्तियों का निरूपण, योग की प्राप्ति के उपायों तथा समाधि के भेदों आदि का वर्णन है। साधनपाद नामक द्वितीय अध्याय में क्रियायोग, क्लेश, कर्म, कर्मों के भेद, कारण, स्वरूप, कर्मविपाक, दुःख, दुःख-हेतु, हान और हानोपाय का विवेचन है। उपादेय की कारणभूत विवेकख्याति के सोपान स्वरूप यम, नियमादि अष्टांगयोग का भी इसमें प्रतिपादन है। विभूतिपाद नामक तृतीय अध्याय में धारणा, ध्यान और समाधि - इन तीन अंतरंग योगांगों के स्वरूप का एक-एक सूत्र में निर्देश दिया गया है। तदनन्तर संयम-जन्य विभूतियों, त्रिविधं परिणाम, तथा विवेकज ज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है। कैवल्यपाद नामक चतुर्थ अध्याय में पूर्व वर्णित सिद्धियों को जन्म, औषधि, मंत्र, तप और समाधि - इन पाँच निमित्तों से उत्पन्न होने वाली बताया गया है। इसके अतिरिक्त यहाँ विज्ञानवाद के निराकरणपूर्वक, निर्माण-चित्त, धर्ममेघसमाधि एवं कैवल्य-प्राप्ति की प्रक्रिया तथा कैवल्य के स्वरूप का वर्णन है।
पातञ्जलयोगसूत्र का अक्षरशः अनुकरण करके जैन और बौद्ध सम्प्रदायों में अभ्यास और वैराग्य के स्तम्भ खड़े किये गये हैं। योग के यमनियमादि आठ अंग प्रायः सभी दर्शनों में मान्य हैं। इस ग्रन्थ के सर्वप्रिय होने में एक विशेषता यह भी है कि यह राजयोग के अन्तर्गत आता है। इसमें हठयोग के समान हठपूर्वक प्राण-निग्रह न करक सीधे मन का निरोध किया जाता है। राजयोग के बिना हठयोग व्यर्थ समझा जाता है। राजयोग का यह सिद्धान्त है कि हठयोग राजयोग की प्राप्ति के लिए आवश्यक नहीं, वरन किञ्चित् बाधक है।
पातञ्जलयोगसूत्र से सम्बन्धित साहित्य
महर्षि पतञ्जलि प्रणीत योगसूत्र से सम्बन्धित साहित्य में उन सभी भाष्यों, टीकाओं, उपटीकाओं और वृत्तियों का समावेश होता है जो योगदर्शन के निगूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए समय-समय पर लिखे गये। योगसूत्र पर तीन भाष्य उपलब्ध होते हैं -
(१) व्यासभाष्य (२) ज्ञानानन्दभाष्य (३) स्वामिनारायणभाष्य।
इनमें से सबसे प्रामाणिक भाष्य व्यासमुनि का है जिसमें सूत्रों के अर्थों को अत्यन्त सारगर्भित शैली में समझाया गया है। पातञ्जलयोगसूत्रों के रहस्यों को समझने के लिए व्यासभाष्य प्रवेशद्वार के तुल्य है।
व्यासभाष्य के गहन तत्वों के स्पष्टीकरण हेतु वाचस्पतिमिश्र ने तत्त्ववैशारदी, विज्ञानभिक्षु ने योगवार्तिक तथा हरिहरानन्द आरण्यक ने भास्वती नामक टीकाएँ लिखी हैं। योगसूत्र के मर्म को समझने के लिए ये टीकाएँ अत्यन्त उपयोगी हैं। तत्त्ववैशारदी के कठिन शब्दों एवं वाक्यों को सुबोध बनाने के लिए राघवानन्द सरस्वती ने 'पातञ्जलरहस्य' नामक उपटीका की रचना की है। सूत्रों के भावार्थ को समझने के लिए भाष्यकारों एवं टीकाकारों के साथ-साथ अनेक वृत्तिकारों ने भी अपना-अपना योगदान दिया है, जिनमें
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