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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य 5 पातञ्जलयोग का प्रथम अंग 'यम' है, जिसका अर्थ है - बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी करना। सर्वप्रथम, ईसा की पहली-दूसरी शती में स्वामी समन्तभद्र ने व्रतों को यम, नियम की संज्ञा से अभिहित किया। सम्भवतः यह पातञ्जलयोग-परम्परा के साथ जैन-साधना-पद्धति को समन्वित करने का सर्वप्रथम प्रयास था। जैनागमों में अनेकत्र आसनों के अभ्यास का भी संकेत प्राप्त होता है। ई०८वीं-६वीं शती के ग्रन्थ आदिपुराण में यह कहा गया है कि ध्यान के लिए आसन की कोई नियत स्थिति निर्धारित करना आवश्यक नहीं है। शरीर की जो-जो अवस्था (आसन) ध्यान का विरोध न करने वाली हो, उसी-उसी अवस्था में स्थित होकर मुनियों को ध्यान करना चाहिये। चाहें तो वे बैठकर, खड़े होकर अथवा लेटकर ध्यान कर सकते हैं। वहाँ यह भी कहा गया है कि ध्यान के समय मुनियों को सुखासन लगाना ही श्रेष्ठ है। चूंकि पर्यङ्क आसन या कायोत्सर्ग आसन सुखासन हैं शेष सब विषम हैं (दुःख देने वाले हैं) इसलिए ध्यान के समय पर्यङ्क आसन या सुखासन ही लगाना चाहिए। इससे यह प्रतीत होता है कि आसन के सम्बन्ध में प्रारम्भ में जैनाचार्यों का कोई आग्रह नहीं था। केवल शरीर की सविधा पर बल दिया जाता था। आसनों की विविधता और साधना-पद्धति में अपेक्षा-दृष्टि से परवर्ती साहित्य में अधिक विस्तृत सामग्री है। प्राचीन जैनागमों में प्राणायाम-साधना का भी स्वतन्त्र निरूपण प्राप्त नहीं होता, जबकि उत्तरवर्ती जैनसाहित्य में इसकी विस्तृत चर्चा उपलब्ध है। जैनसाहित्य के अनुशीलन से यह बात स्पष्ट होती है कि जैनयोग-साधना में प्राणायाम को योग का अनिवार्य अंग नहीं माना गया है। कुछ स्थलों में प्राणायाम की शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगिता प्रतिपादित की गई है। किन्तु कुछ आचार्यों ने चित्त की स्थिरता एवं अनाकुलता की दृष्टि से इसे अनुपयोगी भी बताया है। ८वीं, ६वीं शती के बाद लिखे गये ग्रन्थों में धर्मध्यान के अन्तर्गत पार्थिवी आदि धारणाओं का भी निरूपण है। इसी प्रकार ध्यान की कुछ उच्चतर अवस्थाओं को 'समाधि' नाम से अभिहित करने की प्रवृत्ति भी जैन-ग्रन्थों में देखने को मिलती है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जैन-साधना-पद्धति का निर्माण यद्यपि स्वतन्त्र रूप से किया गया था, किन्तु परवर्ती काल में जैनाचार्यों का यह प्रयास रहा कि जैनसाधना-पद्धति का निरूपण करते समय, पातञ्जलयोग-सम्मत अष्टांगयोग-पद्धति के साथ समन्वय स्थापित किया जाए। ४. पातञ्जलयोग-साहित्य पातञ्जलयोगसूत्र महर्षि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र योगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका प्रारम्भ 'अथ योगानुशासनम् सूत्र से होता है। यह सूत्र इस बात का प्रतीक है कि महर्षि पतञ्जलि योग के आदि प्रणेता नहीं थे। उन्होंने ॐॐ रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४/२१ स्थानांगसूत्र, ५/१/४२, ४३, ५० कल्पसूत्र. १२१, २८०; भगवतीसूत्र. २/१: पृ० २४१: आचारांगसूत्र (प्र० श्रुत०) ६/४/४: (द्वि० श्रुत०) ७/२/१६१: प्रवचनसारोद्धार, १५६७: उत्तराध्ययनसूत्र, १/२२ आदिपुराण, २२/७५-८६ यशस्तिलकचम्पू ३६/६०३,७१५.७१६: योगशास्त्र, ५/१०-१२ आदिपुराण, २१/६५, ६६: योगशास्त्र ६/५ योगशास्त्र ७/६-२५ : ज्ञानार्णव, ३४/२-३१ ७. शास्त्रवार्तासमुच्यय और स्यादवादकल्पलता, स्तबक १. पृ०७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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