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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन 'तप' योग की पृष्ठभूमि के रूप में __बाह्यतप आभ्यन्तरतप में सहायक होता है। तप के उक्त भेदों में योग की दृष्टि से प्रतिसंलीनता, ध्यान और (व्युत्सर्ग) कायोत्सर्ग' का बहुत महत्व है। वस्तुतः इन तीनों प्रकार के तप पर ही योग-साधना आश्रित है। इनमें भी विशेषतः ध्यान प्रमुख है। ध्यान के कई सोपान हैं, जिनकी अन्तिम परिणति निर्विकल्पक समाधि की चरमावस्था है, जहाँ शुद्ध चैतन्य मात्र की अखण्ड एवं अद्वैत अनुभूति शेष रह जाती है। उपर्युक्त संवर व निर्जरा की साधक क्रियाओं के अतिरिक्त जैन-साधना-पद्धति में व्रत को भी स्थान दिया गया है। व्रतों का कार्य संवर की क्रियाओं में सहायता पहुँचाना और अशुभ क्रियाओं से ऊपर उठकर सदाचार में प्रवृत्त कराना होता है। इन व्रतों का स्वरूप साधना के स्तर के अनुरूप भिन्न-भिन्न है। जैसे निम्न कोटी के साधक (गृहस्थ) के लिए अणुव्रतों का और उच्च कोटी के साधक (मुनि) के लिए महाव्रतों का विधान है। इनमें साधक द्वारा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आंशिक पालन अणुव्रत है। उनका पूर्णतः पालन महाव्रत है। संवर और निर्जरा की साधक उपर्युक्त क्रियाओं पर ही संक्षेप में जैनयोग-साधना आधृत है। ३. पातञ्जलयोग-पद्धति और जैन-साधना-पद्धति : एक तुलनात्मक सर्वेक्षण पातञ्जल व जैन दोनों साधना-पद्धतियाँ पृथक व स्वतन्त्र हैं। दोनों में प्रत्येक की साधना-पद्धति का प्रासाद अपने स्वतन्त्र ढांचे को लिए हुए है। पातञ्जलयोग-पद्धति में यम, नियम, आसन आदि अष्टांगों को प्रमुखता दी गई है, तो जैनयोग-साधना में बाह्य एवं आभ्यन्तर तप के रूप में द्वादशांगों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि साधना की रीति अलग होने पर भी दोनों का लक्ष्य समान है और वह है- शद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति। उक्त दोनों योग-साधनाएँ भारतीय दर्शन और अनुशीलन में रुचि रखने वालों के लिए समान रूप से आदरणीय हैं। खेद है कि साम्प्रदायिक संकीर्णताओं के कारण इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन बहुत कम हो पाया है। सुदीर्घ ऐतिहासिक परम्परा में वैदिक और श्रमण-संस्कृतियों में परस्पर आदान-प्रदान हुआ हो, इसकी प्रबल सम्भावना है। अतः प्रस्तुत प्रबन्ध में उपर्युक्त दोनों साधना-पद्धतियों की परस्पर तुलना करने का प्रयास किया गया है। सर्वप्रथम एक तथ्य यहाँ ध्यान देने योग्य है, वह यह कि यद्यपि जैन-साधना-पद्धति पतञ्जलि के अष्टांगयोग से पृथक् स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई थी, किन्तु कालान्तर में समन्वय की भावना से, जैन-साधना-पद्धति को भी अष्टांगयोग-मार्ग के अनुरूप बनाने का प्रयास किया गया। जैन-साधना-पद्धति में, प्रारम्भ में पतञ्जलि के अष्टांगयोग के सभी अंगों की कोई व्यवस्था नहीं थी। तप के अंतर्गत 'ध्यान' ही एक ऐसा तत्त्व है जो दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। किन्तु जैनसाधना-पद्धति का 'ध्यान' पातञ्जलयोग-साधना-पद्धति के 'ध्यान' से अधिक व्यापक है, क्योंकि जैनपरम्परा-सम्मत ध्यान में पातञ्जलयोग-सम्मत प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- चारों समाविष्ट हैं।' १. 'कायोत्सर्ग' व्युत्सर्ग का ही एक प्रकार है। आगमों में कहीं-कहीं कायोत्सर्ग 'व्युत्सर्गतप' के रूप में निरूपित हुआ है। वीतरागस्तोत्र, १४/८: समयसारकलश, ८५ तत्त्यार्थराजवार्तिक,७/१/१३. १४ सागारधर्मामृत, २/८० तत्त्वार्थसूत्र, ७/२ चारित्रप्राभृत, २४रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५२,७२, पंचाध्यायी, ७२.७३ आदिपुराण, २०/१२, पदमनन्दिपंचविंशति. ४/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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