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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
ही मोक्ष प्राप्त होता है।' यही कारण है कि उत्तराध्ययन में रत्नत्रय के साथ-साथ तप, जो चारित्र का ही अंग है, को भी मोक्ष (आत्मस्वरूपोपलब्धि) का अनिवार्य साधन माना गया है। जैन श्रमणों के लिए
•
भी आगम-ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के विशेषण' प्रयुक्त हुए हैं, जो उन्हें तपः शूर अथवा तपोयोग के उत्कृष्ट साधक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। जैनागमों में तपोयोग का व्यापक एवं विस्तृत विवेचन मिलता है। भगवान् महावीर स्वयं एक महान् योगी थे। उन्होंने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप, ध्यान एवं आत्मचिन्तन द्वारा योग-साधना का ही जीवन बिताया था। आचारांग में भगवान् महावीर की तपश्चर्या का विस्तृत वर्णन है। भगवान् महावीर ने उग्र तप के साथ पहले से ही ध्यान जैसे अन्तस्तप पर पूरा जोर दिया और कहा कि बाह्यतप चाहे कितना भी कठोर हो, परन्तु उसकी सार्थकता अन्तस्तप पर अवलम्बित है । इसलिए उन्होंने अपने तपोमार्ग में बाह्यतप को अन्तस्तप के एक साधन के रूप में ही स्थान दिया । बाह्य और आभ्यन्तर बाह्यतप का अधिक संबंध शरीर से है और आभ्यन्तरतप का आन्तरिक जीवन से। दोनों के छः-छः भेद हैं। बाह्यतप के भेद हैं :
जैनागमों में तप के मूलतः दो भेद किये गये हैं
१. अनशन २. ऊनोदरी
३. भिक्षाचरी ४. रस- परित्याग ५. कायक्लेश
१. प्रायश्चित्त २. विनय
३. वैयावृत्त्य
६. प्रतिसंलीनता
आभ्यन्तरतप के भेद हैं :
४. स्वाध्याय
५. ध्यान ६. व्युत्सर्ग
१.
२.
३.
४.
५.
६.
19.
(आहार - परित्याग करना) (भूख से कम खाना)
( भिक्षा द्वारा भोजन ग्रहण करना)
( रसनेन्द्रिय का निग्रह करना)
(शरीर-साधना • गर्मी-सर्दी आदि को सहना तथा पद्मासन, वीरासन आदि
का अभ्यास करना)
(इन्द्रियों को विषयों से हटाना ) ।
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बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। तत्त्वार्थसूत्र. १०/२.३ उत्तराध्ययनसूत्र. २८/२
उग्गतयेदित्तततत्ततये महातवे ओराले धीरे घोरगुणे घोरतवस्सी। भगवतीसूत्र. २७/१/१
तवसूरा अणगारा 1- स्थानांगसूत्र, ४/३/३१७
आचारांगसूत्र (प्र० श्रुत०), अध्ययन ६; औपपातिकसूत्र, अधिकार ३: उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३०
आचारांगसूत्र. ६/ ४७, ६६, १०७, १०८
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( अपराध - पाप की शुद्धि)
( अभिमान का परित्याग कर गुरुजनों एवं अपने से बड़ों के प्रति आदर व बहुमान प्रदर्शित करना)
(निष्काम भाव से गुरुजनों, वृद्धजनों और दीक्षित, तपस्वी आदि साधकों की सेवा करना)
(शास्त्रों का पठन-पाठन करना)
(एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना)
(ममत्व का विसर्जन अर्थात् त्याग करना) ।
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उत्तराध्ययनसूत्र, ३० / ७
८.
उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/८ ३०: तत्त्वार्थसूत्र, ६/१६, २० भगवतीसूत्र, २५/७/१०३
६. उत्तराध्ययन सूत्र, २०/८-२८ औपपातिकसूत्र, ३० स्थानांगसूत्र. ६/५११ भगवतीसूत्र, २५/७/१०४,१२३; तत्त्वार्थसूत्र,६/१६६
१०. तत्त्वार्थसूत्र ६/१९ उत्तराध्ययनसूत्र, २० / २६- ३६ औपपातिकसूत्र, ३० स्थानांगसूत्र. ६/५११ तत्यार्थसूत्र, ६/२
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