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________________ 2 | लिए है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान इन तीन साधनों का विधान अष्टांगयोग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि इन आठ योगांगों की चर्चा है। ये आठ अंग योग की आठ सीढ़ियाँ हैं जिन पर योगशास्त्र का सम्पूर्ण भवन खड़ा है। इनमें से कुछ तो योग-सिद्धि के साधन हैं और कुछ परम्परया योग-सिद्धि में सहायक होते हैं। जिस प्रकार किसी वस्तु को रखने से पूर्व बर्तन को साफ करना पड़ता है, उसी प्रकार यम-नियम के पालन से अन्तःकरण के जन्म-जन्मान्तरों से दूषित संस्कारों को दूर कर उसे निर्मल बनाना होता है। इससे योग-साधना में रुचि बढ़ती है। परन्तु इन्हें योग का बहिरंग साधन कहा गया है। प्राणायाम आदि योग-सिद्धि के साक्षात् साधन हैं। अतः इन्हें अन्तरंग साधन माना गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार यम से लेकर प्रत्याहार तक योग के बहिरंग साधन हैं और धारणा, ध्यान, समाधि अन्तरंग । परन्तु सर्वसम्मति है कि ये आठ अंग ही योग के आधार हैं। २. जैन - साधना-पद्धति जैनधर्म की साधना-पद्धति का नाम 'मुक्ति मार्ग' था,' जो मूलतः 'रत्नत्रययोग पर आधारित है। रत्नत्रय के अन्तर्गत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों का समावेश है। इन तीन रत्नों में सम्यक्चारित्र प्रमुख है, क्योंकि वही मुक्ति का अव्यवहित और अनिवार्य कारण है। चारित्र के साथ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सहयुक्तता होने पर ही सम्यक्चारित्र की स्थिति सम्पन्न मानी जाती है। इसलिए सामान्यतः सम्यक्चारित्र ही मुक्तिमार्ग और मोक्ष का साक्षात् कारण है। सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत साधना की द्विविध प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। वह है - संवर और निर्जरा ।' कर्मों के आगमन को रोकना 'संवर' है और संगृहीत कर्मों का क्षय (निजीर्णता) 'निर्जरा है। संवर के साधनभूत आचरणों में गुप्ति, समिति, दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय व चारित्र परिगणित किये गये हैं। इनमें दशविध धर्मों में तप का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है क्योंकि वह संवर का तो साधन है ही, निर्जरा का भी प्रमुख साधन है । " जैनपरम्परा के अनुसार विषय कषायों का निग्रह करके ध्यान व स्वाध्याय में निरत रहते हुए आत्मचिन्तन करना 'तप' है।" जन साधारण में तप प्रायः इच्छानिरोध, अनशन आदि का सूचक माना जाता है किन्तु जैन शास्त्रों में 'तप' का क्षेत्र व्यापक है। 'तप' को चारित्र का ही अवान्तर भेद माना गया है। १२ 'चारित्र' से आने वाले कर्मों का निरोध होता है और 'तप' से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा भी होती है।" संक्षेप में कर्मों को निजीर्ण करने की साधना का नाम तप है। समस्त (नए एवं पूर्वबद्ध) कर्मों के क्षय से १. ર ३. ४. तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/१/६६-७० चारित्रप्राभृत, (अष्टपाहुड), ८- ६: सर्वार्थसिद्धि, ६/१८/८५४ सर्वार्थसिद्धि, १/४/१६ 19. आस्रवनिरोधः संवरः । - तत्त्वार्थसूत्र ६/ १. ५. ६. तत्त्वार्थसूत्र १/१ योग प्रदीप, ११३ तत्त्वार्थसूत्र, १ / १ सर्वार्थसिद्धि, १/१/७ तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/१/४६ प्रवचनसार, १ / ६ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ८. सर्वार्थसिद्धि. ८/२३/७७८ सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/२. ૬. १०. तत्त्वार्थसूत्र, ६/३.६ ११. द्वादशानुप्रेक्षा, ७७ १२. सर्वार्थसिद्धि ६/१८ १३. तत्त्वार्थसूत्र, ६/२, ६ १४. तपसा निर्जरा च । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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