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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ग्रन्थों में ध्यान के लक्षण, भेद-प्रभेद, आलम्बन आदि का विस्तृत वर्णन है।' स्थानांग, सूत्रकृतांग और भगवतीसूत्र' आदि अंग-आगम ग्रन्थों में संयम, समाधि व ध्यान के अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है । उत्तराध्ययन में भी जैन-साधना पद्धति का अतिसूक्ष्म व मार्मिक प्रतिपादन है। इसमें 'योग' शब्द संयम एवं समाधि दोनों अर्थों में व्यवहृत हुआ है। 8 आगमों के उपरान्त निर्युक्ति, चूर्णि एवं भाष्यों में भी आगम सम्मत योग-साधना का विस्तृत वर्णन है । निर्युक्तियों में विशेषतः 'आवश्यकनिर्युक्ति' के 'कायोत्सर्ग अध्ययन" में ध्यान के लक्षण व भेद-प्रभेदों का वर्णन है। विशेषावश्यकभाष्य एवं आवश्यकसूत्रवृत्ति में भी ध्यान के स्वरूप, उसके भेद एवं साधना का विस्तृत विवेचन है। ईसा की प्रथम शती में आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि अध्यात्म-ग्रन्थों की रचना कर जैनपरम्म्परा के लिए साधना का नया क्षेत्र खोला । परन्तु पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित ध्यान का योग नाम से उल्लेख मोक्षप्राभृत में ही मिलता है । कुन्दकुन्द के अनुसार यह ग्रन्थ परमयोगियों के उस परमात्म रूप परमपद का व्याख्यान करता है, जिसको जानकर तथा निरन्तर अपनी साधना में योजित करके योगी अव्याबाध, अनन्त और अनुपम निर्वाण को प्राप्त करता है। इसमें पतञ्जलि के अष्टांगयोग में से प्राणायाम को छोड़कर शेष अंगों का जैन परम्परानुसार स्फुट वर्णन भी उपलब्ध है। ईसा की प्रथम दूसरी शती से जैनपरम्परा में संस्कृत भाषा में ग्रन्थरचना की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत में स्वतन्त्र सूत्रग्रन्थों की रचना भी की गयी। इस शती के उल्लेखनीय सर्वप्रथम आचार्य उमास्वामि (ति) हैं, जिन्होंने सरल संस्कृत में 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक ग्रन्थ की रचना की। इस लघु ग्रन्थ में जैन-मोक्षमार्ग और उससे संबंधित दर्शन एवं तत्त्वचिन्तन का गंभीर परिचय प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष का हेतु बताने वाले इस मोक्ष मार्ग-प्रतिपादक ग्रन्थ में ज्ञान-क्रिया, ज्ञेय तथा चारित्र का विवेचन है। योग-निरूपण में भी प्रायः चारित्र का ही वर्णन हुआ है, क्योंकि चारित्र के पालन से ही आध्यात्मिक विकास सम्भव होता है। ईसा की पांचवी - छठी शती में पूज्यपाद देवनन्दि ने आध्यात्मिक अनुभूतियों के अजस्र स्रोत समाधितन्त्र" और इष्टोपदेश" नामक दो ग्रन्थों की रचना की । इष्टोपदेश में ग्रन्थकार ने योग के निरूपण के साथ-साथ साधक की उन भावनाओं का भी उल्लेख किया है, जिनके चिंतन से वह अपन चंचल वृत्तियों को छोड़कर अध्यात्म-मार्ग में लीन होता है तथा बाह्य व्यवहारों का निरोध करके आत्मानुष्ठान में स्थिर होकर परमानन्द की प्राप्ति करता है । १२ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. आचारांगसूत्र, ६/१/५, ७, ६/२/४, १२, १/४/३, १४, १५, समवायांगसूत्र, ४/४: स्थानांगसूत्र, ४/१/२४७ भगवतीसूत्र, २५/७ औपपातिकसूत्र, अध्ययन ३० स्थानांगसूत्र, १०/३३,३/८८ एवं अभयदेववृत्ति सूत्रकृतांगसूत्र, १/२/१/११ भगवतीसूत्र, १८/१०/६ उत्तराध्ययनसूत्र, २७/२, ११/१४ एवं बृहद् वृत्ति उत्तराध्ययनसूत्र, १८/४ आवश्यक निर्युक्ति, (निर्युक्तिसंग्रह) १४७६ - १५०६ मोक्षप्रामृत (अष्टपाहुड) ३ (क) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलाल, भारत जैन महामण्डल (वर्धा) सन् १६१२ (ख) तत्त्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, सन् १६७६ १०. समाधितन्त्र, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, सरसावा, सन् १९३६ ११. इष्टोपदेश, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई सन् १६५४ १२. इष्टोपदेश, ४७-४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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