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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम जैन साहित्य में उल्लिखित "एकाग्रमनः सन्निवेशन" शब्द भी पातञ्जलयोग सम्मत धारणा से पूर्ण साम्य रखता है। एकाग्र का अर्थ है अवलम्बन विशेष और सन्निवेशन का अर्थ है स्थापित करना । इस प्रकार "एकाग्रमनः सन्निवेशन" का अर्थ हुआ • मन को किसी एक ध्येय (आलम्बन) पर स्थिर करना । इसका फल चित्तनिरोध (ध्यान) की सिद्धि है।' इसीलिए आ० हेमचन्द्र ने किसी ध्येय में चित्त को स्थिर करने को धारणा कहा है। - - जैनयोग-परम्परा में 'धारणा' के विषय के रूप में पुद्गल कार और नासिका के अग्रभाग का महत्वपूर्ण स्थान है। धारणा के स्थान के विषय में जैनागमों में कोई स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं होता। केवल आचारांगसूत्र में इस विषय से सम्बन्धित उल्लेख कुछ स्थलों पर दृष्टिगत होते हैं। धारणा का वर्णन उत्तरवर्ती साहित्य में अधिक हुआ है। १०वीं शताब्दी के पश्चात्वर्ती आचार्यों ने विशेषतः आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। दसवीं शती में हठयोग- परम्परा एवं नाथ- परम्परा का काफी प्रचलन था। उनके योगविषयक ग्रन्थों का लेखन इसी काल में हुआ था । अतः सम्भावित है कि आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने तत्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल जनमानस की मांग को देखते हुए हठयोग, तन्त्रयोग एवं नाथ- परम्परा से प्रभावित होकर तदनुरूप वर्णन करने का निर्णय लिया हो । आ० शुभचन्द्र ने 'धारणा' को योगांग के रूप में उल्लिखित नहीं किया परन्तु उनका यह कथन'जितेन्द्रिय योगी विषयों की ओर से इन्द्रियों को तथा उन इन्द्रियों की ओर से निराकुल मन को पृथक् करके निश्चिततापूर्वक ललाट प्रदेश में धारण करे', ' धारणा के ही स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने नेत्रयुगल, कर्णयुगल, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, कपाल, शिर, हृदय, तालु, भ्रूमध्य नाभि आदि स्थानों को धारणा स्थान न कहकर ध्यान-स्थान के रूप में सम्बोधित किया है।' आ० हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की वृत्ति में स्पष्ट करते हुए इन्हें धारणा के स्थान कहा है और धारणा को ध्यान का निमित्त बताया है।" उपा० यशोविजय ने धारणा को ध्यान की पूर्वपीठिका के रूप में स्वीकार करते हुए महर्षि पतञ्जलि के समान ही उसका लक्षण किया है। उनके शब्दों में चित्त को नाभिचक्र, नासिका के अग्रभाग आदि देश - विशेष में स्थिर करना 'धारणा' है। इससे मन धर्म में एकाग्र होता है और साधक सभी जीवों में प्रिय हो जाता है । " धारणा के सम्बन्ध में उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनयोग-ग्रन्थों में ध्यान के प्रथम चरण के रूप में धारणा को सहायक तो माना गया है, परन्तु पातञ्जलयोगसूत्र के समान पृथक् रूप से उसका वर्णन कहीं नहीं मिलता। वस्तुतः जैनयोग में ध्यान का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि धारणा और समाधि दोनों उसी में समाहित हो जाते हैं। जबकि पातञ्जलयोगसूत्र में धारणा, ध्यान और समाधि का पृथक् वर्णन हुआ है। वहाँ ध्यान की पूर्वपीठिका 'धारणा' नाम से और ध्यान की पराकाष्ठा 'समाधि' के रूप में चित्रित है। पातञ्जलयोग से प्रभावित होकर ही उपा० यशोविजय ने चित्त को किसी एक ध्येय पर एकाग्र करने ६. ७. ८. एगग्गमणसन्निवेसणाए णं चित्तणिरोहं करेइ । १. २. पासनाहचरियं ३०० 3. आचारांगसूत्र, २/५/६३, ६/४/१४ ४. उपासकाध्ययन, ६/६ : ज्ञानार्णव, २७/ १२, १३ : योगशास्त्र, ६/७ ५. 221 • उत्तराध्ययनसूत्र, २६ / २६ निरुध्य करणग्रामं समत्वमवलम्ब्य च । ललाटदेशसंलीनं विदध्यान्निश्चलं मनः ।। - ज्ञानार्णव, २७/१२ वही. २७/१३ योगशास्त्र, ६/७ एवं स्वो० वृत्ति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/१० एवं स्वो० वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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