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________________ 220 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन पूर्व दृष्टि में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान इस अवस्था में निरतिचार एवं शुद्ध हो जाते हैं। साधक जिन अनुष्ठानों का पालन करता है वे विनियोग प्रधान होते हैं।' __इस दृष्टि में साधक का व्यक्तित्व इतना विकसित हो जाता है कि उसके सम्यग्दर्शन आदि गुण दूसरों को सहज ही प्रीतिकर लगने लगते हैं। चित्त की चंचलता कम हो जाने से उसका चित्त आत्म-चिंतन में लीन होने लगता है। हरिभद्रसूरि के शब्दों में साधक छठे योगांग 'धारणा' का अभ्यास करता है, परिणामस्वरूप उसको मीमांसा गुण और परोपकार भावना की प्राप्ति होती है तथा उसके चित्तगत दोषों का अभाव (विनाश) हो जाता है। इस अवस्था में योगी माया प्रपञ्च से उद्विग्न हुए बिना उसके स्वरूप को जानता रहता है, उसके प्रति आसक्त नहीं होता, उसके दुष्प्रभावों से परे हो जाता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह सब प्राणियों का प्रिय पात्र बन जाता है। धारणा योग का छठा अंग तथा योगसमाधि का प्रमुख तत्त्व है। योगाभ्यासी का चित्त साधारण मनुष्यों के समान ही चंचल होता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार से जब चित्त-चांचल्य पूर्णरूपेण निवृत्त हो जाये तो साधक किसी एक दिशा विशेष की ओर उन्मुख होने में सफल होता है। प्रत्याहार सिद्ध होने पर साधक का बाह्य जगत् से सम्बन्ध छूट जाता है, जिससे उसे बाह्य जगत जन्य कोई बाधा नहीं होती। इसलिए वह किसी बाह्य बाधा के बिना चित्तनिरोध का अभ्यास करने योग्य हो जाता है। प्राणायाम से पवन और प्रत्याहार से इन्द्रियों के वश में हो जाने पर चित्त में विक्षेप की सम्भावना नहीं होती। अतः उसे एक स्थान परं सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के अभ्यास के पश्चात ही धारणा का अभ्यास करना चाहिए। धारणा में बाह्य विषयों से इन्द्रियों को हटाकर अन्तर्मुख किया जाता है तथा चित्त को किसी एक स्थान पर स्थिर एवं शान्त किया जाता है। ___ महर्षि पतञ्जलि ने धारणा की परिभाषा देते हुए कहा है कि चित्त को किसी देश विशेष' में बाँधना धारणा है। व्यास के अनुसार यहाँ देश विशेष' शब्द नाभिचक्र, हृदय-कमल, कपाल, नासिकाग्र भाग, जिह्वाग्र भाग आदि तथा बाह्य विषयों (चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि) का वाचक है। इन देश-विशेषों में चित्त को वृत्ति मात्र से लगाना अर्थात् स्थिर करना धारणा है। जैनयोग-परम्परा में भी समाधि रूप अन्तिम सोपान पर पहुँचने के लिए धारणा की भूमिका को आवश्यक माना गया है। जैन-साधना-पद्धति में धारणा से तात्पर्य है - 'बीजाक्षरों का अवधारण करना। rous १. कान्तायां तु ताराभासमानः एषः, अतः स्थित एवं प्रकृत्या निरतिचारमात्रानुष्ठानं शुद्धोपयोगानुसारि विशिष्टाऽत्रमादसचियं विनियोगप्रधानगम्भीरोदाराशयमिति ।- योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृत्ति गा० १५ २. (क) कान्तायामेतदन्येषां प्रीतये धारणा परा। अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदया ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १६३ (ख) धारणा प्रीतयेऽन्येषां कान्तायां नित्यदर्शनम् । नान्यमुत् स्थिरभावेन मीमांसा च हितोदया ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/योगदृष्टिसमुच्चय, १६४-१६८; द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका २४/६-१६ ४. योगमनोविज्ञान, पृ०२१४ भारतीयदर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ३०३ गोरक्षसंहिता, २/५२ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/१ नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूनि ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिहाग्रे इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा। - व्यासभाष्य, पृ०३१४ ६. अध्यात्मतरंगिणी, गा०३ १०. धारणा श्रुतनिर्दिष्टबीजानामवधारणम् । - आदिपुराण, २१/२२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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