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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 219 में आपत्ति है। उनका कहना है कि इन्द्रियों का निरोध उनकी परमा वश्यता नहीं है। अच्छे या बुरे शब्दादि विषयों के साथ कर्ण आदि इन्द्रियों का सम्बन्ध होने पर तत्त्वज्ञान से रागद्वेष का उत्पन्न न होना भी इन्द्रियों की परमा वश्यता है। अतः परमा वश्यता का एकमात्र उपाय ज्ञान ही है। अपने मत की पुष्टि हेतु वे आचारांगसूत्र को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि जो पुरुष इन शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शों को भली-भाँति जान लेता है, उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान, ज्ञानवान, वेदवान, धर्मवान और ब्रह्मवान होता है। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की आसक्ति आत्मा की उपलब्धि में बाधक बनती है। इनमें आसक्त मनुष्य अनात्मवान् और अनासक्त मनुष्य आत्मवान् कहलाता है। जिसे आत्मा उपलब्ध होती है उसे ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आचार सब कुछ उपलब्ध हो जाता है अर्थात जो आत्मा को जान लेता है वह ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आचार सब कुछ जान लेता है। 'अभिसमन्वागता' का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि विषयों के इष्ट, अनिष्ट, मनोज्ञ, अमनोज्ञ रूप को, उनके उपभोग के दुष्परिणामों को आगे-पीछे से, निकट और दूर से यथार्थ रूप से जान लेता है तथा उनका त्याग करता है, वही आत्मवान् कहलाता है। आत्मा अनित्य, शुद्ध, बुद्ध रूप है। आत्मा के इस यथार्थ रूप को जानना ही इन्द्रिय-जय है। __ वस्तुतः शब्दादि विषयों की आसक्ति आत्मा के अभाव में होती है जो इन पर आसक्ति नहीं रखता, वही आत्मा की भली-भाँति उपलब्धि कर सकता है। जो आत्मा को उपलब्ध कर लेता है उसे आगमधर्म और ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। अन्यत्र भी कहा गया है कि रूप आदि विषय के सामने आ जाने पर चक्षु उसे न देखने में समर्थ नहीं होता अर्थात् सामने आने पर चक्षु अपने विषय को अव भिक्षु को चाहिए कि वह राग-द्वेष का त्याग करे। परमा वश्यता का एक मात्र उपाय ज्ञान ही है, चित्तनिरोध नहीं। ज्ञान भी अध्यात्म भावना से होने वाले समभाव प्रवाह वाला होना चाहिये। यही ज्ञान राजयोग है। संक्षेप में, चित्त का जय हो या बाह्य इन्द्रियों का जय हो, सबका मुख्य उपाय उक्त ज्ञान रूप राजयोग ही है, प्राणायाम आदि हठयोग नहीं। ज्ञान प्राप्ति के लिए ही जैनदर्शन में वर्णित पंच महाव्रत और अणुव्रत, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान आदि को महत्व दिया गया है। ___ आ० हरिभद्रसूरि ने स्थिरादृष्टि को प्रत्याहार के समकक्ष इसलिए कहा है क्योंकि इस दृष्टि में ग्रन्थिभेद हो जाने से साधक का बोध इतना बढ़ जाता है कि उसे सांसारिक चेष्टाएँ बाल-धूलि क्रीड़ा के समान भासित होती हैं और उसकी इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर आत्मा में केन्द्रित होने लगती हैं। 'प्रत्याहार' में भी इन्द्रियाँ बाह्य विषयों से हटकर आत्ममुखी होती हैं। ६. कान्तादृष्टि और धारणा ‘कान्ता' नामक छठी दृष्टि में तारे की प्रभा जैसा स्पष्ट एवं स्थिर बोध होता है। परिणामस्वरूप १. व्युत्थानध्यानदशासाधारणं वस्तुस्वभावभावनया स्वविषयप्रतिपत्तिप्रयुक्तरागद्वेषरूपफलानुपधानमेवेन्द्रियाणां परमो जयः इति तु पयम् ।-पातञ्जलयोगसूत्र, यशो० वृत्ति २/५५ (क) 'जस्सिमे सदा य रूपा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति, से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभव। - आचारांगसूत्र, ३/१/४ : उद्धृत : पातञ्जलयोगसूत्र, यशो० वृत्ति २/५५ अत्र "अभिसमन्वागता" इत्यस्य अभीत्याभिमुख्येन मनःपरिणामपरतन्त्रा इन्द्रियविषयादत्युपयोगलक्षणेन (?) समिति सम्यक्स्वरूपेण नैते इष्टा अनिष्टा वेति निर्धारणया, अनु पश्चादागताः परिच्छिन्नाः यथार्थस्वभावेन यस्येत्यर्थः, स आत्मवानित्यादि परस्परमिन्द्रियजयस्य फलार्थवादः । - पातञ्जलयोगसूत्र, यशो० १०२/५५ "ण सक्का रूवमट्ठ, चक्खू विसयमागय । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए || - उद्धृत : पातञ्जलयोगसूत्र, यशो० वृत्ति २/५५ ५. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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