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________________ 222 को 'धारणा' कहा है, ' क्योंकि बिना इसके समाधि की पूर्ण प्राप्ति नहीं हो सकती। कान्ता नामक छठी दृष्टि को छठे योगांग धारणा के समकक्ष मानने का प्रमुख कारण यह कि इस दृष्टि में जीव का बोध उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ उस अवस्था तक पहुँच जाता है, जहाँ उसके चित्त की चंचलता कम हो जाती है। ७. प्रभादृष्टि और ध्यान 'प्रभा' नामक सातवीं दृष्टि में साधक की आत्म-निर्मलता में अधिक अभिवृद्धि होती है। परिणामस्वरूप उसको सूर्य की प्रभा के सदृश सुस्पष्ट बोध होता है जो ध्यान का हेतु बनता है। इस दृष्टि में उच्च कोटि का बोध होने से अन्य विकल्पों को उपस्थित होने का अवसर नहीं मिलता, साधक को प्रशम प्रधान सुख की अनुभूति होती है। सप्तम योगांग ध्यान में साधक की प्रीति होने से उसके राग, द्वेष, मोह रूप त्रिदोषजन्य भावरोग नष्ट हो जाते हैं, उसे तत्त्वप्रतिपत्ति नामक गुण की प्राप्ति होती है तथा उसका झुकाव सदा सत्प्रवृत्ति की ओर रहता है। इसके अतिरिक्त काम पर सम्पूर्णतया विजय, ध्यानज सुखानुभूति, प्रशान्तभाव प्रधान विवेक बल का तीव्र प्रादुर्भाव मलरहित विशुद्ध स्वर्ण के समान विशुद्ध, निर्मल एवं कल्याणकारी बोध की प्राप्ति इस दृष्टि की विशेषताएँ हैं। - पहले जो साधक का सत्प्रवृत्ति की ओर झुकाव बताया गया है उसे ही आ० हरिभद्र ने असंगानुष्ठान की संज्ञा से अभिहित किया है। जो अनुष्ठान पुनः पुनः सेवन रूप अभ्यास की अधिकता से किया जाता है, उसे असंगानुष्ठान कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनालम्बनयोग भी है और यह प्रीति, भक्ति, आगम (वचन) और असंगता • इन चार अनुष्ठानों में सबसे अन्तिम अनुष्ठान है। असंगानुष्ठान अध्यात्म-साधना के महान् पथ पर गतिशीलता का सूचक है। इस अवस्था में साधक अध्यात्म-साधना के महान् पथ पर अपनी गति प्रारम्भ करता है जो उस शाश्वत पद की ओर ले जाती है जहाँ पहुँचकर कोई वापिस (जन्म-मरण रूप संसार में) नहीं लौटता । परादृष्टि में संस्थित साधक द्वारा असंगानुष्ठान का पालन करने से यह परम वीतराग भावरूप स्थिति को प्राप्त कराने वाली कही गई है। आ० हरिभद्र के अनुसार अन्य मतों में असंगानुष्ठान विभिन्न नामों से आख्यात है। योगदर्शन में इसे 'प्रशांतवाहिता', बौद्धदर्शन में १. २. ३. ४. ५. ६. 19. पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ני द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका २४/१० एवं स्वो० वृ० प्रभायां पुनरर्कभासमानो बोधः स ध्यानहेतुरेव सर्वदा, नेह प्रायो विकल्पावसरः, प्रशमसारं सुखमिह । - योगदृष्टिसमुच्चय, १५, स्वो० वृ० (क) ध्यानप्रिया प्रभा प्रायो नास्यां रुगत एव हि । तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १७० (ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/१७ योगदृष्टिसमुच्चय, १७१ वही, १७४: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/२० (क) सत्प्रवृत्तिपदं चेहासंगानुष्ठानसंज्ञितम् - योगदृष्टिसमुच्चय, १७५ (ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४ / २१ षोडशक, १०/७; योगविंशिका, यशो० वृ० गा० १८ योगविंशिका, १८ ६. योगदृष्टिसमुच्चय. १७५ १०. योगदृष्टिसमुच्चय, १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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