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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 207 मिथ्यावृष्टि होने पर भी प्रथम चार दृष्टियों में स्थित जीवों में मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती जो अन्य सामान्य जीवों में होती है। प्रथम चार दृष्टियाँ आत्मा को सम्यग्दर्शन के समीप लाने में सहायक होती हैं, इसलिए इनका अन्तर्भाव 'योगदृष्टियों' में किया गया है। जब तक आत्मा में मिथ्यात्व का कुछ भी अंश विद्यमान रहता है, वह सत्क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं हो सकता। प्रथम चार दृष्टियाँ 'मिथ्यादृष्टि' नामक प्रथम गुणस्थानवर्ती होने से 'असत् दृष्टियाँ' कही जाती हैं। पांचवीं दृष्टि में मोहरागमयी ग्रन्थि का भेदन हो जाने से मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। इससे साधक के लिए मोक्ष का मार्ग खुल जाता है। उसे आगे उन्नति करने की सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। पांचवीं से आगे की समस्त दृष्टियाँ सम्यग्दर्शन युक्त होती हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति सत्क्रियाओं में ही होती है असत् में नहीं। यही कारण है कि अन्तिम चार दृष्टियों को सत्दृष्टियाँ कहा जाता है। चूँकि प्रथम चार दृष्टियों में मिथ्यात्व का अंश विद्यमान रहता है, इसलिए इनकी वृत्ति संसाराभिमुखी रहती है, जिससे इनके पतन की भी संभावना होती है। यही कारण है कि आ० हरिभद्र ने इन्हें प्रतिपाति' एवं ‘सापाया' अर्थात् अपाययुक्त (दोषयुक्त) कहा है। अन्तिम चार दृष्टियाँ सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त होती हैं। इनमें आत्मा आत्मविकास की ओर उन्मुख होती है। इनमें प्रवेश पाने के पश्चात् साधक का पतन नहीं होता। इसलिए इन्हें अप्रतिपाति और बाधारहित कहा गया है। अप्रतिपाति दृष्टि प्राप्त होने पर ही योगी साधक अपने चरम लक्ष्य की ओर प्रयाण करता है। प्रथम चार दृष्टियाँ यथार्थ ज्ञान से रहित होने के कारण अवेद्यसंवेद्यपद' कही जाती हैं। जबकि अग्रिम चार दृष्टियाँ यथार्थ ज्ञान से युक्त होने के कारण वेद्यसंवेद्यपद' कहलाती हैं। अवेद्यसंवेद्यपद का निराकरण (अतिक्रमण) सत्पुरुषों की संगति और शास्त्रश्रवण से होता है। आ० हरिभद्र ने आठ योगदृष्टियों की तुलना क्रमशः तृणाग्नि, कण्डाग्नि, काष्ठाग्नि, दीपकाग्नि, रत्नप्रभा, नक्षत्रप्रभा, सूर्यप्रभा तथा चन्द्रप्रभा से की है जो क्रमशः उत्तरोत्तर वृद्धि की द्योतक हैं। चूंकि आ० हरिभद्र ने आठ योग दृष्टियों को पतञ्जलि सम्मत यम-नियम आदि आठ अंगों के समानान्तर नामभेद के साथ दर्शाने का प्रयास किया है और कहा है कि एक योगांग की साधना से एक-एक योगदृष्टि प्राप्त होती है, इसलिए यहाँ योगदृष्टियों के साथ योगांगों का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। | क) प्रतिपातयुताश्चाधाश्चतस्त्रो नोत्तरास्तथा । सापाया अपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतरा: ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १६ ख) द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २०/२८ २. जिसमें बाह्यवेध अर्थात् जानने योग्य, अनुभव करने योग्य विषयों के संवेदन और ज्ञान का अभाव हो उसे 'अवेद्यसंवेद्यपद कहते हैं। ' ३. क) अवेद्यसंवेद्यपदं यस्मादासु तथोल्यणम् । पक्षिच्छायाजलचरप्रवृत्तयाभमतः परम् ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, ६७: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/२४ ख) अध्यात्मतत्त्वालोक, १०६, ४. जिसमें वेद्य (जानने योग्य) विषयों के पर्याय स्वरूप का संवेदन और ज्ञान किया जा सके. वह 'वेद्यसंवेद्यपद' कहलाता है। सम्यग्धेत्वादिभेदेन लोके यस्तत्त्वनिर्णयः ।। वेद्यसंयेद्यपदतः सूक्ष्मबोधः स उच्यते ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ६५; द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/२३ ६. अवेद्यसंवेद्यपदमान्ध्यं दुर्गतिपातकृत्। सत्संगागमयोगेन जेयमेतन्महात्मभिः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, ८५, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/३२ क) तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीपप्रभोपमा । रलतारार्कचन्द्राभाः सदृष्टेदृष्टिरष्टधा ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १५ ख) द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २०/२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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