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________________ 208 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन योगदृष्टियाँ और योगांग १. मित्रादृष्टि और यम मित्रादृष्टि अध्यात्मयोग की प्रथम अवस्था है और प्रथम योगदृष्टि भी है। इसमें दृष्टि सम्पूर्णतया सम्यक नहीं होती। राग-द्वेष कुछ ही मात्रा में मन्द होते हैं। अतः इस दृष्टि में होने वाला आत्म-बोध भी बहुत धुन्धला, मन्द और क्षणिक होता है। इस दृष्टि की उपमा तिनके के अग्निकण (चिनगारी) से दी गई है,' जिसका प्रकाश बहुत कम और क्षणिक होता है, फिर भी वह ओघदृष्टि के घोर अंधकार से भिन्न होता है। इस अवस्था में साधक जिन धार्मिक क्रियाओं का आचरण करता है उसका कुछ लाभ उसे अवश्य मिलता है, जिससे उसके हृदय में आत्मगुणों की स्फुरणा के रूप में आत्मविकास रूप कार्य का बीजारोपण हो जाता है। अर्थात् जीव का मोक्ष के प्रति प्रयाण प्रारम्भ हो जाता है। जीव को यह दशा मोक्ष-प्राप्ति में चरमपुद्गलपरावर्तन काल शेष रहने पर ही प्राप्त होती है। भावमल अपेक्षाकृत कम होने से प्रथम दृष्टि प्रथम गुणस्थानवर्ती मानी जाती है। यहाँ यथाप्रवृत्तिकरण की स्थिति होती है अर्थात् जीव राग-द्वेष की ग्रन्थि के प्रदेश के समीप पहुँच जाता है।" मित्रादृष्टि में जीव आत्मोन्नति के लिए योग के प्रथम अंग 'यम' का पालन करता है। इस दृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति रुचि, उनको क्रियान्वित करने में खेद का अभाव, तथा समस्त प्राणियों के प्रति द्वेष भाव का अभाव साधक के चित्त में प्रतिष्ठित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखने की चेष्टा के कारण ही इस दृष्टि का नाम 'मित्रादृष्टि' रखा गया है। स्मरणीय है कि महर्षि पतञ्जलि ने भी यमों में प्रथम अहिंसा के पालन के परिणामस्वरूप साधक के प्रति सभी प्राणियों में निर्वैर भाव की सिद्धि प्राप्त होने का निर्देश दिया है। उपा० यशोविजय ने भी पतञ्जलि के उक्त मत में सम्मति प्रदान की है। 'यम' का शाब्दिक अर्थ है - संयम, नैतिक कर्तव्य या धर्मसाधन। अतः जागतिक अनुशासन से सम्बद्ध व्यापार 'यम' कहे जाते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भेद से 'यम' के पांच भेद माने हैं, जो जैन-परम्परा में व्रत के रूप में स्वीकृत हैं। जैन-परम्परा में उक्त पांचों व्रत आंशिक रूप से पालन किए जाने पर 'अणुव्रत' तथा पूर्णरूपेण पालन किए जाने पर 'महाव्रत' + ल * क) मित्रायां बोधस्तृणाग्निकणसदृशो भवति । - योगदृष्टिसमुच्चय, स्वो० वृ० गा० १५ ख) मित्रायामिति ...... तृणाग्निकणोद्योतेन सदृशः । - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, स्वो० वृ० २१/१ २. क) करोति योगबीजानामुपादानमिह स्थितः ।। अवन्ध्यमोक्षहेतूनामिति योगविदो विदुः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, २२ ख) योगबीजमुपादत्ते श्रुतमत्र श्रुतादपि ।- द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/७ क) चरमे पुदगलावर्ते तथा भव्यत्वपाकतः । - योगदृष्टिसमुच्चय, २४ ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/६ योगदृष्टिसमुच्चय, ३८-४०: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/२४, २५ क) मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकस्तथा। अखेदो देवकार्यादावद्वेषश्चापरत्र तु ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, २१ ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/१ अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः | - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३५ द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, २१/६ एवं स्वो० वृ० ८. क) अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । - पातञ्जलयोगसूत्र. २/३० ख) अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्माकिञ्चनता यमाः। -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/२ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम। - तत्त्वार्थसूत्र,७/१ १०. दशवैकालिकसूत्र,४/७ धर्मबिंदु, ३/१६: योगशास्त्र, २/१ * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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