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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र को योगदृष्टियों के अष्टविध विभाजन का सुझाव बौद्ध- परम्परा के अभिधर्मकोश' और उसके भाष्य में वर्णित आठ दृष्टियों से मिला है। उक्त आठ दृष्टियों के निरूपण में पतञ्जलि के अष्टांगयोग (आठ अंगों), भगवदत्त द्वारा निरूपित आठ दोषों और भदन्त भास्कर द्वारा प्रतिपादित आठ गुणों में एकसूत्रता दृष्टिगत होती है। योग के आठ अंग और आठ योगदृष्टियों की संख्या बराबर होने से ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र का योगदृष्टि-विवेचन पातञ्जलयोगदर्शन से अधिक प्रभावित हुआ है। दृष्टियों के लक्षण से यह भी आभास होता है कि हरिभद्र के समक्ष आध्यात्मिक विकास की प्रणाली में क्रमिक अवस्थाओं की तीन महत्वपूर्ण विवेचनाएँ रही होंगी, जिनको उन्होंने आठ दृष्टियों के रूप में निरूपित किया और अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की इस विवेचना में पाई जाने वाली आठ क्रमिक अवस्थाओं में आठ की संख्या को ही यथार्थ मानकर अपने विवेचन का आधार बनाया। इसलिए डॉ० दीक्षित यह मानते हैं कि आ० हरिभद्र द्वारा योगदृष्टियों के रूप में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का जो विभाजन किया गया है उसमें जैन-परम्परा का अभिलक्षक कुछ भी नहीं है। वे किसी जैनेतर-परम्परा से लिए गये हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि आ० हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकासक्रम में तीन भिन्न-भिन्न परम्पराओं से सहायता लेकर अभिनव दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए साम्प्रदायिक भेद को मिटाने के लिए सभी में साम्य दर्शाने का प्रयास किया है। उनका मत है कि योगदृष्टि में प्रवेश करके साधक जब यम-नियम आदि का अभ्यास करता है तब उसमें (साधक में) विद्यमान खेद, उद्वेग आदि दोषों की निवृत्ति होने लगती है, राग और द्वेष शांत होने लगते हैं तथा परिणामस्वरूप अद्वेष; जिज्ञासा आदि गुणों का उद्भव होने लगता है और मित्रा आदि योग दृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं एवं साधक क्रमशः उत्तरोत्तर दृष्टियों को प्राप्त करता जाता है। पतञ्जलि के आठ योगांग, भगवदत्त के आठ दोष और भदन्त भास्कर के आठ गुण का जैन-परम्परा से परस्पर सम्बन्ध जोड़ने के लिए आठ दृष्टियों की अभिनव कल्पना आ० हरिभद्र के वैशिष्ट्य और गूढ विचारों की सूचक है। ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र ने साधनाक्रम में तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु चिन्तन की स्थितियों का अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किया था।
यहाँ यह विचारणीय यह है कि आठ योगदृष्टियों में भी प्रथम चार दृष्टियाँ मिथ्यात्व युक्त होने से प्रथम गुणस्थानवर्ती मानी जाती हैं। अतः उनका अन्तर्भाव भी 'ओघदृष्टि' में होना चाहिये था, परन्तु
१. चक्षुश्च धर्मधातोश्च प्रदेशो दृष्टिः अष्टधा । - अमिधर्मकोश, १/४१
द्रष्टव्य : अभिधर्मकोश १/४१ पर भाष्य Studies in Jain Philosophy, p.2 Haribhadra seems to have had before him three important treatments of the successive stages in the process of spiritual development, treatments which all enumerated these stages as eight. Having himself decided to devide the process in question into eight stages Haribhadra felt that the eight. successive stages occuring in the treatment of his three predecessors exactly corresspond to the eight that were to occure in his own proposed treatment. -Yogadratisamuccaya& Yogavimsikii, p. 26 Yogadrstisamuccaya & Yogavinsikā, p. 24, 25 यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः । अद्वेषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सतां मता ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, १६ यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।- पातञ्जलयोगसूत्र, २/२१ खेदोद्वेगक्षेपोत्थानभ्रान्त्यन्यमुद्रुगासंगैः युक्तानि हि चित्तानि प्रपंचतो वर्जयेन्मतिमान्।
-उद्धृत : योगदृष्टिसमुच्चय, गा० १६ स्वो० वृ० अद्वेषो जिज्ञासा शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसा ।।
परिशुद्धा प्रतिपत्तिः प्रवृत्तिरष्टांगिकी तत्त्वे ।। - वही १०. एवं क्रमेणैषा सदृष्टिः सतां' - मुनीनां भगवत्पतञ्जलिभदन्तभास्करबन्धुभगवद्दत्तादीनां योगिनामित्यर्थः 'मता'--इष्टा।
- वही
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