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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 205 बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती और सम्यग्दर्शन को प्राप्त किए बिना साधक मोक्ष-मार्ग में उन्नति नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में योग-साधना का यथार्थ प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि से ही होता है। ओघदृष्टि _ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व जो असत् बोध होता है उसे ही मिथ्यादर्शन, दर्शनमोहनीय, मिथ्यात्व अथवा अविद्या के नाम से जाना जाता है। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि अनादिकालीन प्रगाढ़ मिथ्यात्व से ।। है और उसमे नाना प्रकार के ज्ञानावरणादि कमों के क्षयोपशम की विचित्रता होती है इसलिए उसे 'ओघदृष्टि' के नाम से अभिहित किया गया है। 'ओघदृष्टि' वाला जीव विवेक और ज्ञान का अभाव होने से संसाराभिमुखी होता है। अतः 'ओघदृष्टि' संसार के प्रवाह में पतित, अविद्या में निमग्न व्यक्ति की चेतना की अवस्था है। पतञ्जलि के अनुसार यह सभी क्लेशों की मूल है और स्वयं भी महाक्लेश है। योगाचार्यों का मत है कि ओघदृष्टि के कारण ही तत्त्वदर्शन में भेददृष्टिगोचर होता है। 'ओघदृष्टि' से ऊपर उठकर साधक 'योगदृष्टि' में प्रवेश करता है। 'योगदृष्टि' 'ओघदृष्टि' से विपरीत होती है। 'ओघदृष्टि' 'योगदृष्टि' की पूर्ववर्ती अवस्था है। आ० हरिभद्र द्वारा किया गया 'ओघदृष्टि' व 'योगदृष्टि' का विभाजन बौद्ध परम्परा से अनुप्राणित प्रतीत होता है। योगदृष्टि आ० हरिभद्र ने जीव के कर्ममल की तारतम्यता के भेद से होने वाले बोध को आठ योगदष्टियों में विभाजित किया है। जैसे-जैसे आत्मा का कर्म-मालिन्य घटता जाता है वैसे-वैसे आत्मा विशुद्धि की ओर बढ़ती जाती है। आत्मा की विशुद्धता के साथ साधक की दृष्टि भी विकसित होती जाती है। उसके समक्ष जो अज्ञानान्धकार होता है वह धीरे-धीरे कम होता जाता है और बोध रूपी प्रकाश में वृद्धि होती जाती है। परिणामस्वरूप साधक को आगे का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगता है। इससे उसका आगे बढ़ने का उत्साह भी बढ़ता जाता है। बढ़ते-बढ़ते वह अन्त में पूर्णता (पूर्णप्रकाश-ज्ञान) प्राप्त कर लेता है। परिणामों की विशुद्धि का यह क्रम विकासशील योगदृष्टियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आ० हरिभद्रसूरि के अनुसार योगदृष्टियाँ आठ हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं – मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा। १. अध्यात्म प्रवेशिका, पृ० १४२ २. क) समेघाऽमेघरात्र्यादौ सग्रहाधर्भकादिवत् । ओघदृष्टिरिह ज्ञेया, मिथ्यादृष्टीतराश्रया || - योगदृष्टिसमुच्चय, १४ ख) समेघामेघरात्रिंन्दिवरूपदर्शनवत् क्लिष्टाक्लिष्टलौकिकीशैक्ष्यशैक्षीभिदृष्टिभिर्धर्मदर्शनम्। - अभिधर्मकोशमाष्य, १/४१ ३. अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः । अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम् .....। - पातञ्जलयोगसूत्र, २, ३, ४ ४. एतन्निबन्धनोऽयं दर्शनभेद इति योगाचार्याः । - योगदृष्टिसमुच्चय, गा० १३ पर स्वो० वृ० क) Haribhadra's distinction between oghadrsti and Yogadrsti has some parallel in Buddhism. - Yogadrstisamuccaya & Yogavimsika, Preface, p.5 ख) तुलना : तथौघयोगादृष्टीनां पृथाग्भावस्तु पाटवात् । - अभिधर्मकोश, ५/३७ योगदृष्ट्य उच्यन्ते अष्टौ सामान्यतस्तुताः |- योगदृष्टिसमुच्चय, १२ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योग दृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, १२, १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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