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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
हैं। जीव शुभ, अशुभ अथवा शुद्ध जिस किसी भाव के रूप में परिणमन करता है, वैसा ही हो जाता है। आ० कुन्दकुन्द के अनुसार आत्मा जब शुद्ध भाव के रूप में परिणत होता है, तब निर्वाण का सुख प्राप्त करता है, जब शुभभाव रूप में परिणत होता है, तब स्वर्ग का सुख प्राप्त करता है और जब अशुभ भाव रूप में परिणत होता है, तब हीन मनुष्य, नारक या पशु आदि बनकर सहस्रों दुःखों से पीड़ित होता हुआ चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र गुणस्थानों के जीवों के अशुभोपयोग होता है। चतुर्थ गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक के जीवों को तारतम्य रूप से शुभोपयोग होता है। शुद्धोपयोग अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान से क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान तक के जीवों के तारतम्य रूप से होता है। सयोगकेवली और अयोगकेवलीजिन होना शुद्धोपयोग का फल है।
आ० कुन्दकुन्द द्वारा निरूपित शुभ-अशुभ या शुद्ध भावों के परिणामों की ही आ० शुभचन्द्र ने आशयभेद से चर्चा की है। उन्होंने जीव के आशय को पुण्याशय, अशुभाशय और शुद्धोपयोग के भेद से तीन प्रकार का बताया है तथा यह निर्देश दिया है कि उनमें पुण्याशय के वशीभूत होकर लेश्या का आलम्बन लेता हुआ जो भव्य जीव वस्तुस्वरूप का चिन्तन करता है उसके प्रशस्त ध्यान होता है। इसके विपरीत अशुभाशय के वशी
वशीभत होकर चिन्तन करने वाले जीव के असदध्यान (दान) होता है। रागादि के क्षीण हो जाने के कारण अन्तरात्मा के प्रसन्न होने पर जो आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है, उसे शुद्धोपयोग या शुद्धाशय कहा गया है। शुभ ध्यान का फल जहाँ स्वर्ग में देव या इन्द्र के वैभव की प्राप्ति है," वहाँ दुर्ध्यान का फल नरकादि दुर्गति की प्राप्ति है। शुद्धोपयोग की प्राप्ति का फल ज्ञानराज्य (कैवल्य) की प्राप्ति है। (घ) दृष्टि-विभाजन
योगदृष्टिसमुच्चय में आ० हरिभद्र ने जैन-परम्परा सम्मत आध्यात्मिक विकासक्रम की 'गुणस्थान' संज्ञक विभिन्न अवस्थाओं का निरूपण दृष्टियों के माध्यम से किया है। 'दृष्टि' से अभिप्राय है - ‘सत्य के प्रति श्रद्धायुक्त बोध' । उक्त बोध साधक की असत् प्रवृत्तियों को नष्ट कर सत्प्रवृत्ति की ओर ले जाता है।१० विकास की प्रत्येक अवस्था साधक को एक नवीन दृष्टि प्रदान करती है, इसलिए आ० हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकास की क्रमिक अवस्थाओं के लिए 'दृष्टि' सम्बोधन प्रयुक्त किया है। जैनमतानुसार असत् बोध तब तक होता है जब तक आत्मा की मोह रागमयी ग्रन्थि का भेदन नहीं होता। ग्रन्थि-भेद हुए
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१. प्रवचनसार, १/८-१२
मिथ्यात्वसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये। तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोगयोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ।। - प्रवचनसार, १/६ पर जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यटीका तत्र पुण्याशयः पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशयः । शुद्धोपयोगसंज्ञो यः स तृतीयः प्रकीर्तितः ।। - ज्ञानार्णय, ३/२८
वही. ३/२६ ५. ज्ञानार्णव, ३/३०
वही, ३/३१ वही. ३/३२ वही, ३/३३ वही, ३/३४ क) सत्छ्रद्धासंगतो बोधो दृष्टिरित्यभिधीयते।
असत्प्रवृत्तिव्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः ।। -योगदृष्टिसमुच्चय, १७ ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २०/२५ ११. Yogadrstisamuccaya& Yogavimsika, Introduction, p. 1
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