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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 203 डा० दयानन्द भार्गव ने 'अन्तरात्मा' की तुलना योगदर्शन के 'कैवल्य प्राग्भार' से की है।' योगदर्शन के अनुसार विवेकज्ञान को प्राप्त हुआ आत्मा कैवल्य की ओर अभिमुख होता है। 'कैवल्य प्राग्भार' का अर्थ ही है - कैवल्य की ओर झुका हुआ या अभिमुख। 'अन्तरात्मा' भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त होने पर मोक्ष की ओर अभिमुख होकर धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि अन्तरात्मा की स्थिति चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मानी गई है किन्तु यहाँ उत्कृष्ट अन्तरात्मा से तात्पर्य है। उत्कृष्ट अन्तरात्मा की स्थिति सातवें गुणस्थान से शुरू होती है। आठवें गुणस्थान से आध्यात्मिक विकास की दो धाराएँ चलती हैं - उपशम व क्षपक । उपशमधारा में ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर भी साधक पुनः नीचे आ जाता है। क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाला साधक नवें, दसवें गुणस्थान से होता हुआ (ग्यारहवे में न जाकर) सीधे बारहवे गुणस्थान में जाता है और तेरहवें गुणस्थान में सर्वज्ञत्व (ईश्वरत्व) को प्राप्त करता है। अतः 'कैवल्य प्राग्भार' की समता क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ उत्कृष्ट अन्तरात्मा की स्थिति से करना उचित होगा। ३. परमात्मा ___ संसारी जीवों में आत्मा की सबसे उत्कृष्ट अवस्था परमात्मा' कही जाती है। कर्मावरणों से निर्लिप्त संकल्प-विकल्पादि उपाधियों से रहित शुद्ध, आनन्दमय एवं अनन्तगुणों से युक्त आत्मा को परमात्मा' नाम से अभिहित किया गया है। बहिरात्मा और अन्तरात्मा दोनों का क्रमशः त्याग करने से परमात्मा' का स्वरूप प्रतिभासित होता है। उक्त अवस्था की तुलना पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित कैवल्यावस्था से की जा सकती है। (ग) त्रिविध उपयोग जहाँ कुछ स्वतंत्र चिन्तकों ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - इन त्रिविध सोपानों में आध्यात्मिक विकासक्रम का निरूपण किया है वहाँ उन्होंने अशुभोपयोग, शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग इन त्रिविध उपयोगों के माध्यम से भी आध्यात्मिक विकासक्रम का वर्णन करने का प्रयास किया है। चेतना की परिणति विशेष का नाम 'उपयोग' है। चेतना सामान्य गुण है और ज्ञान-दर्शन इसकी दो पर्याय अवस्थाएँ हैं। इन्हीं को उपयोग कहते हैं। आ० कुन्दकुन्द ने आत्मा के परिणमन की अपेक्षा से उपयोग के तीन भेद बताएँ हैं - १. अशुभोपयोग, २. शुभोपयोग, ३. शुद्धोपयोग। अशुभ और शुभ अनुष्ठान के करने से क्रमशः अशुभ और शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। जब आत्मा शुभ और अशुभ अनुष्ठानों के विकल्पों से रहित निर्विकल्प रूप हो जाता है, तब उसके शुद्ध भाव उत्पन्न होते 4. Jain Ethics, p. 206 २. तदाविवेकनिम्न कैवल्य प्राग्भारं चित्तम् । - पातञ्जलयोगसूत्र. ४/२६ परमात्मा संसारिजीवेभ्यः उत्कृष्टः आत्मा।- समाधितंत्र, टीका, ६/२२५/१५ मोक्षप्राभृत, ५ नियमसार, ७; भावसंग्रह, २७२, २७३, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १६५-१६६; परमात्मप्रकाश, १/१५; ज्ञानार्णव, २६/८; योगशास्त्र, १२/८; अध्यात्मसार,७/२०/२४द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २०/१८: अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५ पर स्वो० वृ० क) बाह्यात्मानमपास्यैवान्तरात्मानं ततस्त्यजेता प्रकाशयत्ययं योगः स्वरूप परमेष्ठिनः ।। - ज्ञानार्णव, २६/२४ ख) पृथगात्मानं कायात्पृथक् च विद्यात्सदात्मनः कायम्। उभयोर्भेदज्ञातात्मनिश्चये न स्खलेधोगी ।। - योगशास्त्र, १२/६ ६. सर्वार्थसिद्धि,७/३२; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ७/३२/६ ७. अप्पा उवओगप्पा उयओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि।। - प्रवचनसार, २/६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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