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________________ 202 क्रमशः पतितावस्था, साधकावस्था और सिद्धावस्था नाम भी मिलते हैं।' आ० कुन्दकुन्द ने बहिरात्मा को हेय, अन्तरात्मा को परमात्मा की अवस्था प्राप्त करने का उपादेय साधन और परमात्मा को ध्येय माना है । आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय' ने बहिरात्मा को शरीर, अन्तरात्मा को शरीर का अधिष्ठाता एवं परमात्मा को समग्र उपाधियों से रहित, आनन्दमय, चिन्मय रूप तथा इन्द्रियों से अगोचर कहा है । आत्मा की इन तीन अवस्थाओं में ही चौदह गुणस्थानों की अवस्थाएँ समा जाती हैं। आत्मा की तीन अवस्थाओं का स्पष्ट रूप से वर्णन आ० कुन्दकुन्द की देन है। उन्होंने सर्वप्रथम 'मोक्षप्राभृत' में इनकी व्याख्या की है। परवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी जैनाचार्यों ने इन्हीं का अनुकरण कर आत्मा की इन अवस्थाओं का वर्णन किया है। गृहीत आचार्यों में आ० हरिभद्र एक मौलिक चिन्तक थे। उन्होंने आध्यात्मिक विकास को गुणस्थानक्रम तथा आत्मा की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं के स्थान पर विविध दृष्टियों में विभाजित किया। आठ दृष्टियों का निरूपण करते हुए उन्होंने बहिरात्मा की स्थिति का प्रथम चार दृष्टियों तक तथा अन्तरात्मा की स्थिति का पांचवी से सातवीं दृष्टि तक वर्णन कर आठवीं दृष्टि में परमात्म स्वरूप की उपलब्धि का संकेत किया है। १. बहिरात्मा प्रथम अवस्था में आत्मा का यथार्थ स्वरूप कर्म-आवरणों से पूर्णतः आच्छादित रहता है। अतः उसका ज्ञान भी मिथ्यात्व युक्त होता है। मिथ्यात्व कर्म के उदय के कारण आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ जीव, शरीरादि को ही आत्मा समझता है। हेय, उपादेय या हिताहित का विवेक न होने से वह विषय भोगों में ही आसक्त रहता है। उक्त अवस्था में विद्यमान जीव को बहिरात्मा' की कोटि में परिगणित किया जाता है ।" २. अन्तरात्मा द्वितीय अवस्था में मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने से सम्यग्दर्शन का आविर्भाव हो जाता है और आत्मा को स्व-पर का विवेक अर्थात् भेद ज्ञान की प्रतीति होने लगती है। जैनमतानुसार जिस अवस्था में शरीर को आत्मा न मानने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाए और शरीर व आत्मा में भेद प्रतीत होने लगे, उसे, 'अन्तरात्मा' कहा जाता है।' आ० कुन्दकुन्द ने इसे 'परमात्मावस्था को प्राप्त करने का उपादेय साधन माना है ।" आ० शुभचन्द्र एवं उपा० यशोविजय प्रभृति जैन विद्वान भी 'अन्तरात्मा' को साधकावस्था समझते हैं क्योंकि इस अवस्था में जीव शुभाशय से धार्मिक क्रियाओं का आचरण करता हुआ आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है। " ८. १. २. ३. ४. ५. मोक्षप्राभृत, ५, ८ ६. ज्ञानार्णव, २६/५-१०: मोक्षप्राभृत, ५-८: समाधितंत्र, ४: परमात्मप्रकाश, १/१२: अध्यात्मसार, ७/२०/२१ - २४: योगशास्त्र, १२/७ दृष्टियों का विस्तृत विवेचन, पृ० २१२-२५२ पर है। ७. मोक्षप्रामृत, ६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १६२ परमात्मप्रकाश १/१३: समाधितंत्र, ७; योगसार, ७ ज्ञानार्णव २९/६, ११-१६, २२: योगशास्त्र, १२/७: अध्यात्मसार, ७/२०/२०-२१: अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५ पर स्वो० वृ० मोक्षप्रामृत, ५ नियमसार १५० समाधितंत्र, ५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १९४: ज्ञानार्णव, २९/७ योगशास्त्र, १२ / ७: अध्यात्मसार, ७/२०/२१: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २६/१७ अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५ पर स्वो० वृ० दर्शन और चिन्तन, पृ० २६२ मोवाप्राभूत, ५.८ योगशास्त्र, १२/७ ६. पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अध्यात्मसार, ७/२०/२१ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २०/१७ १०. मोक्षप्रामृत, ५-८ ११. ज्ञानार्णव, २६ / ६, १० अध्यात्मसार, ७/२०/२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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