SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 189 (मूढ़) अवस्था अविकास की भूमिकाएँ हैं। तीसरी विक्षिप्त भूमिका विकास और अविकास दोनों का संयुक्त रूप है क्योंकि इस अवस्था में विकास प्रारम्भ होने पर भी मुख्यतः अविकास ही होता है। इसलिए इन तीनों अवस्थाओं में योग नहीं होता। चौथी एकाग्रभूमि एवं पांचवी निरुद्धभूमि विकासकालीन अवस्था की सूचक हैं । एकाग्रभूमि में सम्प्रज्ञातयोग और निरुद्धभूमि में असम्प्रज्ञातयोग माना गया है। सम्प्रज्ञातयोग में स्थूल अथवा सूक्ष्म आलम्बन होता है, जबकि असम्प्रज्ञातयोग निरालम्ब होता है इसलिए उसे निर्बीज व संस्कारशेष कहा गया है। उक्त पांच अवस्थाओं के लक्षण इस प्रकार हैं : १. क्षिप्तचित 'क्षिप्त' का अर्थ है, फेंका हुआ अर्थात् विषयों में फेंका गया चित्त । यह चित्त की रजोगुण प्रधान अवस्था है। इस अवस्था में चित्त रूप, रस, गन्ध आदि विषयों में रमण करने से अत्यन्त अस्थिर होता है इसलिए यह अवरथा 'क्षिप्त' कहलाती है। २. मूढ़चित्त __यह चित्त की तमोगुण प्रधान अवस्था है। जिस अवस्था में चित्त मूर्खवत् हो जाए अर्थात् कृत्याकृत्य को भूल जाए उसे 'मूढ़' कहते हैं । इस अवस्था में चित्त अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य की ओर आसक्त होकर उनमें ही रमण करने लगता है। इसमें आत्माभिरुचि और ज्ञानाभिरुचि का अभाव रहता है तथा जीव आलस्य एवं निद्रावृत्ति वाला हो जाता है। ३. विक्षिप्तचित्त ___ विक्षिप्त' का अर्थ है - क्षिप्त से विशिष्ट । क्षिप्तभूमि में रजोगुण की प्रबलता के कारण चित्त कभी भी समाहित नही हो सकता, परन्तु विक्षिप्त अवस्था में सत्त्वगुण की प्रबलता के कारण कभी-कभी वह समाहित भी हो जाता है। इस अवस्था की एक विशिष्टता यह भी है कि इसमें सत्त्वगुण का आधिक्य होने पर भी रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति रहती है। परिणामस्वरूप उसमें शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष चलता रहता है। इसलिए इस अवस्था में चित्त व्याकुल या व्यग्र हो जाता है। तथापि कभी-कभी प्रशस्त विषयो का अनुभव करने के कारण चित्त की इस अवस्था को 'विक्षिप्त' कहा जाता है। ४. एकाग्रचित्त ___ 'एकाग्र' शब्द का अर्थ है - चित्त के अग्रभाग पर एक ही विषय में लगा होना। आत्मचेतना के पूर्णतः जागरूक होने पर जब चित्त विषयों से विमुख होकर सतत एक ही ध्येय में लगा रहता है तो चित्त की वह अवस्था 'एकाग्र कहलाती है। ५. निरुद्धचित्त ____ 'निरुद्ध' का अर्थ है – रोका गया चित्त, अर्थात् जो अपनी वृत्तियों से पृथक् कर दिया गया हो। एकाग्रभूमि में अन्य वृत्तियों के हटने से चित्त में एक ही ध्येय की वृत्ति रहती है, परन्तु निरुद्धभूमि में वह वृत्ति तथा उसके संस्कार भी लय कर दिये जाते हैं। इसलिए एकाग्र और निरुद्ध, दो ही भूमियों में योग (समाधि) हो सकता है, आरम्भिक तीन भूमियों में नहीं। निरुद्धावस्था में चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है, केवल संस्कार मात्र शेष रहते हैं। १. क) विरागप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१८ ख) सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसंप्रज्ञातः । ........तदभ्यासपूर्वक हि चित्त निरालम्बनमभावप्राप्तमिव गवतीत्येष निर्वीज. समाधिरसप्रज्ञातः। -- व्यासभाष्य, पृ०६४-६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy