SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय आध्यात्मिक विकासक्रम योग मोक्ष का हेतु है। मोक्ष से तात्पर्य है - आत्म-विकास की पूर्णता। दूसरे शब्दों में विशुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि ही मोक्ष है, जो कर्मों के क्षय से प्राप्त होती है। जिसप्रकार खान में स्थित स्वर्ण बाह्य एवं आन्तरिक मल से युक्त होने के कारण अपनी वास्तविक चमक-दमक से विरहित होता है, उसी प्रकार आत्मा जब तक संसारावस्था में है, तब तक वह अनेकविध आवरणों से आवेष्टित रहता है। अतः उसका वास्तविक, सहज स्वरूप भी व्यक्त नहीं हो पाता। उसके ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य आदि गुण विकृत, मलिन और अपूर्ण रहते हैं। इन गुणों का पूर्णतया प्रकट होना ही मोक्ष है। ज्यों-ज्यों आत्मा पर से कर्मावरण यों-त्यों आत्मा का स्वरूप उज्ज्वल होता जाता है तथा उसके स्वाभाविक गुण विकसित होने लगते हैं। आत्मा के स्वरूप की उज्ज्वलता एवं उसके गुण के विकास का परम प्रकर्ष ही मोक्ष है। जीव को आत्मिक विकास की यह पूर्णता सहसा तथा एक ही प्रयास में अधिगत नहीं होती। इसके लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है। अनेक जन्मों की साधना से जीव उस पूर्ण विकास को पाने में समर्थ बनता है। अतः आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक भाषा में चारित्र विकास कहा जा सकता है। विकास के क्रमानुसार उत्तरोत्तर सम्भावित साधनों को सोपान-परम्परा की तरह प्राप्त करता हुआ जीव अन्त में चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है। आध्यात्मिक विकासक्रम में ही वैराग्य तथा समता का भाव उदित होता है, जो योग का प्रमुख अंग है। अतः मोक्ष के साधन के रूप में जब योग का विचार किया जाता है तब उसमें आध्यात्मिक विकास की झलक स्वतः ही दृष्टिगत होने लगती है। आध्यात्मिक विकासक्रम में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की सभी अवस्थाएँ समाविष्ट हो जाती हैं। इस विषय के सम्बन्ध में भारत के प्रायः सभी दर्शनों ने पृथक-पृथक ढंग से विचार किया है। परिभाषा तथा वर्णनशैली भिन्न होने पर भी उनके विचारों में प्रायः समानता ही दृष्टिगोचर होती है। अ. पातञ्जलयोग-मत पातञ्जलयोगसूत्र में योग की परिभाषा देते हुए चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग को साध्य के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि चित्त-विकल्प ही समस्त दुःखों का मूल है, जो राग या आसक्ति जनित है। राग या आसक्ति होने पर ही चित्त-विकल्प होते हैं। समाधि की अवस्था तक पहुँचने के लिए चित्त का निर्विकल्प होना आवश्यक है। पातञ्जलयोगसूत्रभाष्य में आध्यात्मिक विकासक्रम में चित्त की पाँच भूमिकाओं का वर्णन हुआ है - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। इनमें पहली (क्षिप्त) और दूसरी १. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। - तत्त्वार्थसूत्र, १०/२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड).८ योगस्य पन्थाः परमस्तितिक्षा ततो महत्यात्म-बलस्य पुष्टिः! - अध्यात्मतत्वालोक.४/११' क्षिप्त मूढ़ विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः। - व्यासभाष्य, पृ०२ ॐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy