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योग और आचार
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जैनयोग में मोक्ष-प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण कर्मों का नाश अनिवार्य माना गया है, क्योंकि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादिकालीन और प्रगाढ़ है। कर्म के कारण ही आत्मा संसार में भटकती है। जैनयोग के अनुसार कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता आत्मा ही है। अतः कर्म और आत्मा का वियोग नितान्त आवश्यक है। जैनयोग के समान पातञ्जलयोग-परम्परा में भी बन्ध और मोक्ष पुरुष के ही माने गये हैं।
कर्म-सिद्धान्त का सम्बन्ध भाग्य और पुरुषार्थ दोनों से है। जैनयोग-परम्परा में स्पष्ट रूप से साधक को निर्देश दिया गया है कि केवल भाग्य पर निर्भर रहने से न ही जीवन रूपी गाड़ी चलती है और न ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसके लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है, जो आचार अथवा चारित्र के रूप में वर्णित है। इसप्रकार स्पष्ट है कि जैन-परम्परा पातञ्जलयोग-परम्परा की अपेक्षा वैशिष्ट्य रखती है।
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