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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
पातञ्जलयोगसूत्र में कैवल्य की प्राप्ति के लिए अभ्यास और वैराग्य, क्रियायोग तथा अष्टांगयोग का विधान प्रस्तुत है, जबकि मोक्ष-प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप त्रिविध आयामी योग का विवेचन किया गया है। __ जैन-परम्परा की यह विशेषता है कि इसमें ज्ञानयोग एवं क्रियायोग का सुन्दर समन्वय है। एकांगी ज्ञान और एकांगी सदाचार अर्थात् अविवेकपूर्ण आचार और सदाचार-विहीन ज्ञान दोनों को ही मोक्ष-प्राप्ति के लिए अयोग्य समझा गया है।
जैन-परम्परा सम्मत सम्यग्दर्शन का स्वरूप पातञ्जलयोगसूत्र में उल्लिखित विवेकख्याति' में देखा जा सकता है। पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट चित्तवृत्तिनिरोध के उपायों में वर्णित ईश्वर-प्रणिधान एवं स्वाध्याय की चर्चा में सम्यग्दर्शन की ही भावना बीज रूप में प्रतिष्ठित दिखाई देती है।
सम्यग्दर्शन के प्रतिपक्षी भाव 'मिथ्यात्व' का स्वरूप पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित 'अविद्या के समकक्ष है। जैन-परम्परा की मान्यता है कि मिथ्यात्व के घोर अंधकार में डूबे सभी व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते। इस मान्यता के विरुद्ध पातञ्जलयोगसूत्र में सभी व्यक्ति समान रूप से योग-साधना के अधिकारी माने गये है। ___ जिसप्रकार जैनदर्शन में जीव और अजीव दो तत्त्व प्रमुख माने गये हैं उसीप्रकार पुरुष और प्रकृति तथा चेतन और जड़ ये दो तत्त्व पातञ्जलयोगसूत्र में भी स्वीकृत हैं। जैनदर्शन का जीव तो पातञ्जलयोगसूत्र के पुरुष के सदृश है परन्तु अजीव तत्त्व को पातञ्जलयोग सम्मत प्रकृति के सदृश मानना अनुचित है। यद्यपि अजीव तत्त्व, प्रकृति के समान ही स्वाधीन, स्वतन्त्र, अनादि और अनन्त है, तथापि उनमें भेद एकत्व-अनेकत्व को लेकर है। अजीव अनेक हैं परन्तु प्रकृति एक ही है। जैन मतानुसार अजीव के पांच भेद - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की चर्चा पातञ्जलयोगसूत्र में नहीं मिलती। वहाँ व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वों का उल्लेख हुआ है। जैनदर्शन तत्त्व अर्थात् द्रव्य को परिणामी नित्य मानता है जबकि योगदर्शन में पुरुष (नामक तत्त्व) की कूटस्थ नित्यता स्वीकार की गई है। जैनदर्शन सम्मत वस्तु की त्रिगुणात्मकता पातञ्जलयोगसूत्र के धर्म-धर्मी के स्वरूप विवेचन में दृष्टिगोचर होती है। जैन-परम्परा में सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का द्वितीय एवं अनिवार्य साधन माना गया है, जबकि पातञ्जलयोगसूत्र में कैवल्य-प्राप्ति के उपायों में ज्ञान का स्पष्टतः कहीं उल्लेख नहीं हुआ। ___ जैन-परम्परा का साधना-मार्ग साधक की योग्यता के अनुसार कई सोपानों में विभाजित है। सबसे निम्न भूमिका संसारी जीव की है। उनमें भी मनुष्यों में गृहस्थ की भूमिका निम्न है। सबसे उच्च भूमिका मुनि की है। जैन-परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि के लिए पृथक्-पृथक् आचार का विधान है। मुनि अथवा श्रमण का आचार पूर्णतः त्यागमय होता है, जबकि गृहस्थ अथवा श्रावक का आचार आंशिक । श्रमण का ध्येय पूर्ण रूप से आध्यात्मिक विकास होता है, जबकि श्रावक व्यावहारिक जीवन में ही अपनी समस्याओं के आध्यात्मिक समाधान की इच्छा करता है। गृहस्थ के साधना-मार्ग को भी अनेक प्रतिमाओं के रूप में कई सोपानों में विभाजित किया गया है। मुनि का साधना-मार्ग भी गुणस्थानों और उनमें आचरणीय चारित्रों की विविधता के कारण कई सोपानों में विभाजित है। साधना-मार्ग के सभी सोपानों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच मूलभूत व्रतों को विशेष स्थान दिया गया है। इसप्रकार जैनाचार अत्यन्त मनोवैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है, ऐसा स्पष्ट हो जाता है। __ जैन-परम्परा में श्रावक के लिए अणुव्रतों एवं श्रमण के लिए महाव्रतों का जो विधान प्रस्तुत हुआ है, वह पातञ्जलयोग-परम्परा में वर्णित यम-नियम के अनुरूप ही हैं। जैन-साधना में वर्णित दश धर्मों में संयम
और तपधर्म पातञ्जलयोगसूत्र में स्वीकृत प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से साम्य रखते हैं। इस प्रकार दोनों का लक्ष्य एक ही है, ऐसा सिद्ध होता है।
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