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योग और आचार
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ही ईश्वर की संज्ञा दी गई है।' जीव या पुरुष ही अपनी कर्मों से आवृत्त तथा अविकसित शक्तियों को आत्म-बल के द्वारा क्षीण कर आत्म-शक्तियों को विकसित करने में समर्थ होता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर जीव ही परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अतः प्रत्येक आत्मा अपने प्रयत्न विशेष (पुरुषार्थ) से परमात्मा बन सकता है। ई. भाग्य, पुरुषार्थ और कर्म __ जैनदर्शन के इस कर्म-सिद्धान्त में कर्म की प्रधानता के साथ-साथ भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को महत्ता प्रदान की गई है। आ० हरिभद्र एवं उपा० यशोविजय ने जीव को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हुए भाग्य, पुरुषार्थ और कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध को सरल व सुबोध भाषा में समझाने का प्रयास किया है। अतीत में किये गये शुभ या अशुभकर्म ही भाग्य कहलाते हैं और वर्तमान में किये जाने वाल कर्म पुरुषार्थ कहे जाते हैं। भाग्य वस्तुतः पुरुषार्थ की ही सन्तान है। अतीत में किए गए कर्म उस समय के पुरुषार्थ ही तो हैं। पुरुषार्थ से ही वर्तमान में नए जीवन का सूत्रपात किया जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। व्यक्ति का वर्तमान जीवन समग्र रूप से पूर्व संचित कर्मों द्वारा निर्धारित है। पूर्व संचित कर्मों के बिना उसका जीवन-व्यापार नहीं हो सकता और वर्तमान में जब तक मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक उसे संचित कर्मों का फल भी नहीं मिलता। भाग्य जब दुर्बल होता है तो वह पुरुषार्थ द्वारा उसकी दुर्बलता को प्रभाव-शून्य कर देता है। और जब पुरुषार्थ दुर्बल होता है तो भाग्य उसी दुर्बलता को प्रभाव-शून्य कर देता है। इस प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ दोनों की स्थिति प्रधान-गौण भाव से अपने-अपने स्वभाव पर टिकी हुई है। जब जो प्रधान होता है, तब वह दूसरे को उपहृत करता है। अन्तिम पुद्गलपरावर्त में भाग्य पुरुषार्थ द्वारा उपहृत होता है जबकि उससे पूर्ववर्ती पुद्गलावरों में पुरुषार्थ भाग्य द्वारा उपहृत रहता है। अन्तिम पुद्गलपरावर्त में पुरुषार्थ करके ग्रन्थि-भेद की स्थिति प्राप्त होती है। इस स्थिति में नियमपूर्वक धर्मसाधनोचित प्रवृत्ति से जीव के संचित कर्मों का क्षय हो जाता है। कर्मों का सम्बन्ध अतीत और वर्तमान दोनों के व्यापारों से होता है। अतः एकान्ततः भाग्य पर या पुरुषार्थ पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। वर्तमान में केवल भाग्य पर निर्भर न रहकर पुरुषार्थ को अधिक महत्ता दी जानी चाहिए क्योंकि पुरुषार्थ में वह शक्ति है, जो भाग्य को भी परिवर्तित कर देती है। अतः कर्मों से मुक्ति पाने के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है।
चूँकि योग का आधार आचार है, और आचार से ही साधक आध्यात्मिक विकास करता हुआ परम लक्ष्य तक पहुँचता है, इसलिए पातञ्जल एवं जैन – दोनों योग-परम्पराओं में आचार को प्रमुखता प्रदान की गई है।
१. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः । तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । सः एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।
- पातञ्जलयोगसूत्र, १/२४-२६ दैवं नामेह तत्त्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् । तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः ।। दैवमात्मकृतं विद्यात् कर्म यत् पौर्वदेहिकम्। स्मृतः पुरुषकारस्तु क्रियते यदिहापरम्।। - योगबिन्दु, ३१६, ३२५ योगबिन्दु, ३२०.३२४: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १७/११.१२
योगबिन्दु, ३२१, ३२६, द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १७/५,६,१३ ५. योगबिन्दु, ३२७
योगबिन्दु, ३३६, द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १७/२६ योगबिन्दु, ३३७
योगबिन्दु, ३३८; द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १७/२७ ६. योगबिन्दु, ३४०
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