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कर्मों की अवस्थाएँ
जैन- परम्परा में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर गहनता से विचार हुआ है। प्रमुख रूप से इन अवस्थाओं की संख्या दश मानी गई है' -
-
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
६.
१०.
बन्ध
संक्रमण
उद्वर्तना
अपवर्तना
सत्ता
उदय
उदीरणा उपशमन
निधत्ति
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्म-परमाणुओं के आत्म-प्रदेश से होने वाला
सम्बन्ध ।
जैन-कर्म-सिद्धान्तानुसार एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्मप्रकृति में परिवर्तित होना ।
आत्मा द्वारा नवीन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की काल-मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने की प्रक्रिया |
नवीन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को घटाना । बन्धने के बाद कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता, कुछ समय पश्चात् मिलता है। कर्म जब तक फल न देकर अस्तित्व रूप में रहता है तब तक की स्थिति ।
वह अवस्था, जब कर्म अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं।
नियत काल के पूर्व ही प्रयासपूर्वक उदय में लाकर कर्मों के फलों को भोग लेना । कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना ।
कर्मों की वह अवस्था, जिसमें उद्वर्तन-अपवर्तन के अतिरिक्त संक्रमण आदि नहीं हो सकते ।
निकाचना जिन कर्मों का फल निश्चित स्थिति और अनुभाग के आधार पर भोगा जाता है, जिसके विपाक के भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता ।
जैन- परम्परा सम्मत उक्त अवस्थाओं में सत्ता, उपशम, क्षयोपशम विरोधी प्रकृति के उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्था के भाव पतञ्जलि के योगसूत्र में वर्णित क्लेशों की प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार - इन चार अवस्थाओं के समकक्ष हैं।
जैसा पहले कहा जा चुका है कि समस्त कर्मों में 'मोहनीयकर्म' अत्यधिक बलवान होता है। उसी के कारण कर्म-बन्ध का प्रवाह सतत बना रहता है। जब तक मोहनीयकर्म प्रबल और तीव्र रहता है, तब तक अन्य कर्मों का बन्धन भी प्रबल और तीव्र रहता है। जैसे ही मोहनीयकर्म का दबाव कम होना प्रारम्भ होता है, वैसे ही आत्मा पर से अन्य कर्मों का आवरण भी क्षीण होता जाता है और आत्मा का यथार्थ स्वरूप विकसित होने लगता है ।
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कर्म-सिद्धान्त के अनुसार विकास की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त करने वाला जीव ही ईश्वर है, परमात्मा है। जैन परम्परानुसार कर्मावरणों से मुक्त जीव सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ ही ईश्वर है । पातञ्जलयोगसूत्र में भी क्लेशों, कर्मों एवं संस्कारों से पूर्णतया अलिप्त रहने वाले सर्वज्ञ, अनन्त शक्ति सम्पन्न पुरुष विशेष को
१.
गोम्मटसार, (कर्मकाण्ड), गा० ४३७
२. कर्मग्रन्थ, भाग ४ प्रस्तावना, पृ० ११
३.
जिनवाणी, पृ० ४३
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