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________________ 178 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन १. सामायिक सम उपसर्ग पर्वक गत्यर्थक.डण' धात से 'समय' शब्ट की निष्पत्ति मानी गई है। सम अर्थात एकीभाव अय अर्थात् गमन यानि एकीभाव द्वारा बाह्याभिमुखता से अन्तर्मुखता की ओर गमन करना 'समय' है और समय का भाव 'सामायिक' है। 'सम' का अर्थ राग-द्वेष में मध्यस्थ रहना भी है। अतः मध्यस्थ भावयुक्त साधक की मोक्ष के प्रति जो अभिमुखता है, वह सामायिक है। आ० हेमचन्द्र के अनुसार आर्त एवं रौद्रह यान का त्याग करके धर्मध्यान का अवलम्बन लेकर शत्रु-मित्र, तृण-स्वर्ण आदि में समभाव रखना 'सामायिक' है। चूंकि सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र द्वारा ही समभाव में स्थिर रहा जा सकता है इसलिए शास्त्रों में सामायिक के तीन भेद किये गये हैं - १. सम्यक्त्व सामायिक, २. श्रुत सामायिक, ३. चारित्र सामायिक सामायिक से जीव सब प्रकार की पापात्मक वृत्तियों से विरक्त हो जाता है। २. चतुर्विंशतिस्तव सावद्ययोग से निवृत्त होकर समभाव में स्थिर होने के लिए किसी आलम्बन की आवश्यकता होती है, इसीलिए जैन शास्त्रों में 'चतुर्विंशतिस्तव' नामक द्वितीय आवश्यक का विधान किया गया है। जैनधर्म के प्रवर्तक एवं उपदेशक २४ तीर्थंकरों एवं सिद्धों की स्तुति करना 'चतुर्विंशतिस्तव' कहलाता है। आo हेमचन्द्र लिखते हैं कि चँकि ये चौबीस तीर्थंकर एक ही क्षेत्र में और वर्तमान अवसर्पिणी रूपी एक काल में हुए हैं, अतः आसन्न (निकट) उपकारी होने से उनकी स्तुति करना परम आवश्यक है। वीतराग तीर्थंकरों की स्तुति करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। जीव को आध्यात्मिक बल मिलता है तथा साधना का मार्ग प्रशस्त होता है, आन्तरिक चेतना जागृत होती है। ३. वन्दना तीर्थंकर के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का माना गया है, इसलिए तीर्थंकर की स्तुति के साथ-साथ गुरुत्व को भी आवश्यक माना गया है। मन, वचन एवं काय की शुद्धिपूर्वक सर्वात्मना सदगुरु को अभिवादन करना 'वन्दना' कहलाता है। गुरुवन्दना से नीच गोत्रकर्म का क्षय और उच्च गोत्रकर्म का बन्ध होता है तथा जीव को अप्रतिहत सौभाग्य व सर्वत्र आदरभाव प्राप्त होता है। ४. प्रतिक्रमण प्रति उपसगपूर्वक क्रम्' धातु के साथ भाव अर्थ में अनट् प्रत्यय लगने से व्युत्पन्न 'प्रतिक्रमण' शब्द का अर्थ है वापिस लौटना । आ० हेमचन्द्र के शब्दों में शुभयोग से अशुभयोग में गए हुए आत्मा का फिर से ॐ १. सर्वार्थसिद्धि.७/२१ २. (क) समोराग-द्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण् गतौ', अयनं अयो, गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः, समाय एव सामायिकम्।-आवश्यकसूत्र, गा०८५४ पर मलयगिरिटीका, पृ० ४७४ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, ३४७७ आवश्यकनियुक्ति गा०७६६ ___ सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ।- उत्तराध्ययनसूत्र, २६/८ (क) चतुर्विशतीनां तीर्थकृतामप्यन्येषां च स्तवाभिधायी चतुर्विंशतिस्तवः। - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, हरिभद्रवृत्ति, १/२० (ख) चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां नामोत्कीर्तनपूर्वकं स्तवो गुणकीर्तनम्, तस्य च कायोत्सर्गे मनसाऽनुध्यानं शेषकालं व्यक्तवर्णपाठः । -योगशास्त्र, ३/१३० पर स्वो० वृ० योगशास्त्र. ३/१२३ पर स्वो० वृ० चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ। - उत्तराध्ययनसूत्र, २६/६ उत्तराध्ययनसूत्र, २६/१० जे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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