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________________ योग और आचार 179 शुभयोग में वापिस लौट आना 'प्रतिक्रमण है। वस्तुतः धार्मिक क्रियाओं में प्रमाद आदि के कारण या शुद्धोपयोग के अभाव में असावधानी के कारण दोष लगने पर उनकी निवृत्ति के लिए दिन में दो या तीन बार प्रतिक्रमण करने का विधान है, परन्तु आ० हरिभद्र लिखते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाये। दोषों के अभाव में भी प्रतिक्रमण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि आत्मगुणों की वृद्धि होती है। उन्होंने प्रतिक्रमण को अध्यात्म के अन्तर्गत परिगणित किया है। ५. कायोत्सर्ग ___ कायोत्सर्ग का सामान्य अर्थ है – काय यानि शरीर का उत्सर्ग अर्थात् त्याग करना । लेकिन जीवित रहते हुए शरीर का त्याग करना उचित नहीं, इसलिए यहाँ इसका अर्थ भिन्न है। यहाँ शरीर-त्याग का अर्थ है - शारीरिक चंचलता का त्याग। शरीर से जिनमुद्रा में खड़े होकर अथवा एकाग्रतापूर्वक स्थिर होकर बैठना, शब्द से मौन रहना और मन से शुभ ध्यान करना तथा मन, वचन, काय की समग्र प्रवृत्तियों का त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता है। जैन शास्त्रों में कायोत्सर्ग को अत्यन्त महत्ता प्रदान की गई है। इसके द्वारा अतीत और वर्तमान काल के प्रायश्चित्त योग्य दोषों की शुद्धि होती है और जीव प्रशस्तध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। आ० हेमचन्द्र के अनुसार कायोत्सर्ग से कर्मों की निर्जरा होती है। ६. प्रत्याख्यान प्रति+आ+ख्यान, इन तीन शब्दों के योग से 'प्रत्याख्यान' शब्द व्युत्पन्न हुआ है। प्रति- प्रतिकूल प्रवृत्ति, आ - मर्यादापूर्वक और ख्यान - कथन करना, अर्थात् अनादिकाल से विभावदशा में रहे हुए आत्मा के द्वारा वर्तमान स्वभाव से प्रतिकूल मर्यादाओं का त्याग करके अनुकूल मर्यादाओं को स्वीकार करना, प्रत्याख्यान या पच्चक्खाण कहलाता है। प्रत्याख्यान से कर्मास्रव का निरोध होता है, संयम की वृद्धि होती है, विषय-तृष्णा का उच्छेद होता है और पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है। अन्त में साधक एक दिन केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। केवलज्ञान से शाश्वत सुख मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसप्रकार परम्परा से 'प्रत्याख्यान' मोक्ष फलदाता है। साधना की दृष्टि से विचार करने पर 'षडावश्यक' को एक सम्पूर्ण अध्यात्मयोग-साधना.की भूमिका कहा जा सकता है। इसमें हरिभद्र के अध्यात्मादि पांच योग एवं पतञ्जलि के अष्टांगयोग का समावेश हो जाता है । षडावश्यक का प्रथम अंग सामायिक समतायोग है। चतुर्विंशतिस्तव और गुरुवंदन अध्यात्मयोग के ही प्रकार हैं। प्रतिक्रमण से दोषों का परिमार्जन होता है। कायोत्सर्ग भावना और ध्यान का ही प्रकार है। प्रत्याख्यान 'वृत्तिसंक्षययोग' है। इसीप्रकार षडावश्यक-साधना में ही पतञ्जलि के अष्टांगयोग की साधना भी समाहित हो सकती है। यही कारण है कि जैन-साधना-पद्धति में प्रतिदिन षडावश्यक-साधना का विधान प्रस्तुत किया गया है। १. योगशास्त्र, ३/१२६ पर स्वो० वृक्ष २. प्रतिक्रमणमप्येव सति दोषे प्रमादतः। तृतीयौषधकल्पत्याद द्विसन्ध्यमथवाऽसति।। - योगबिन्दु. ४०० योगशास्त्र. ३/१२६ पर स्वो० वृ० उत्तराध्ययनसूत्र, २६/१२ योगशास्त्र. ३/१२६ पर स्वो० वृ० वही. ७. वही * ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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