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________________ योग और आचार 177 इन बारह भावनाओं से जिसका मन निरन्तर भावित रहता है, वह सभी भावों पर ममतारहित होकर समभाव का अवलम्बन लेता है। जब जीव समताभाव से युक्त हो जाता है, तब जीव के समस्त कषाय नष्ट हो जाते हैं। कषाय रूपी अग्नि के विलीन हो जाने से ज्ञान रूपी दीपक विकसित हो जाता है। अतः जीव को निराकुल, अविनश्वर, अतीन्द्रिय सुख प्रदान करने वाली इन भावनाओं का चिन्तन अवश्य करना चाहिए। जैन-परम्परा में वर्णित द्वादश अनुप्रेक्षाओं/भावनाओं के समकक्ष पातञ्जलयोगसूत्र में यम-नियम की प्रतिपक्षी विघ्न (विरोधी) भावनाओं का अवलम्बन लेने की चर्चा मिलती है। विशेषता इतनी है कि पतञ्जलि ने भावनाओं के नाम, संख्या आदि का निरूपण नहीं किया, जबकि जैनयोग-साधना में इन्हें विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। __ जैन-परम्परा के सदृश पातञ्जलयोगदर्शन में भी भावना और जीव का घनिष्ठ सम्बन्ध दर्शाया गया है। उसके अनुसार भावनाओं का चिन्तन करने से आत्म-शुद्धि होती है, चित्त प्रसन्न रहता है। चित्त के प्रसन्न रहने से बुद्धि स्थिर होती है और चित्त की एकाग्रता बनी रहती है। इसलिए वहाँ ईश्वर का बार-बार जप करने का विधान प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि जप के पश्चात् ईश्वर की भावना करनी चाहिए और ईश्वर-भावना के पश्चात पुनः जप, इस प्रकार बार-बार आवृत्ति करते रहने से परमात्मा का साक्षात्कार होता है। (घ) षडावश्यक _ 'आवश्यक' जैन साधना का मुख्य अंग है। जिस प्रकार श्रावक के लिए देव-पूजा, गुरु-सेवा आदि छ: नित्य कर्मों का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रमण के लिए छः आवश्यक क्रियाओं का विधान प्रस्तुत हआ है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'षडावश्यक' कहा गया है। 'आवश्यक' शब्द 'अवश' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है - "कषायों से स्वतन्त्रता'। जो साधु दूसरों के अधीन रहता है, वह इन आवश्यक कर्मों का पालन नहीं कर सकता। परन्तु जो यथार्थतः साधु है, उसके लिए इन कर्मों का पालन करना आवश्यक होता है। गुणों से शून्य आत्मा को जो गुणों से पूर्ण रूप से वासित करे अर्थात् गुणों से युक्त करे, वह भी 'आवश्यक' कहलाता है।१२ जैन शास्त्रों में आवश्यक के छ: अंग माने गये हैं, जिनके नाम व स्वरूप इस प्रकार हैं - भावनाभिरविश्रान्तिमिति भावितमानसः । निर्ममः सर्वभावेषु, समत्वमवलम्बते।। - योगशास्त्र, ४/११० ज्ञानार्णय, २/१६२; योगशास्त्र, ४/११ ज्ञानार्णव, २/१६१ ४. वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। - पातञ्जलयोगसूत्र. २/३३ मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाम् सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/३३ प्रसन्नमेकाग्रं स्थितिपदं लभते।- व्यासभाष्य, पृ० ११३ तज्जपस्तदर्थभावनम्।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/२८ प्रणवस्य जपः प्रणवाभिधेयस्य चेश्वरस्य भावनम् । तदस्य योगिनः प्रणवं जपतः प्रणवार्थ च भावयतश्चित्तमेकाग्रम् संपद्यते। तथा चोक्तम् - स्वाध्यायात् योगमासीत योगात्स्वाध्यायमासते। स्वाध्याययोगसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते।। - व्यासभाष्य, पृ०६५-६६ मूलाचार, २२; उत्तराध्ययनसूत्र, २६/२-४; नियमसार, १४१ १०. नियमसार, १४२, मूलाचार, ५१५, अनगारधर्मामृत, ८/१६ ११. नियमसार, १४३ १२. ज्ञानादिगुण-कदम्बकं मोक्षो वा आसमन्ताद् वश्यं क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकम्। -आवश्यकसूत्र, मलयगिरिटीका, पृ०६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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