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________________ योग और आचार 171 अस्तेय-महाव्रत की भावनाएँ जैन शास्त्रों के अनुसार निम्नलिखित भावनाएँ अस्तेय-महाव्रत को पुष्ट करती हैं - १. आलोच्य अवग्रहयाचन मन से विचार करके ही स्वामी से अवग्रह (रहने के स्थान) की याचना करना। अभीक्ष्ण-अवग्रहयाचन मालिक से बार-बार अवग्रह की याचना करना। ३. परिमित-अवग्रहयाचन जितने स्थान की आवश्यकता हो, उतने ही स्थान की याचना करना, आवश्यकता से अधिक की नहीं। ४. साधर्मिक-अवग्रहवाचन स्वधर्मी साधु से भी अवग्रह की याचना करके रहना या ठहरना। ५. अनुज्ञापित पान-अन्न- गुरु की आज्ञा से आहार-पानी का उपयोग करना। अशनग्रहण उपरोक्त भावनाओं से श्रमणयोगी की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत अधिक संकुचित हो जाती हैं। याचना से विनम्रता और निरभिमानता का भाव उत्पन्न होता है तथा आसक्ति-भाव कम होता है। अनासक्त योगी को संसार की समस्त वस्तुएँ तुच्छ प्रतीत होने लगती हैं। पातञ्जलयोगसूत्र में भी 'अस्तेय' को तीसरा महाव्रत माना गया है। भाष्यकार व्यास के अनुसार शास्त्रोक्त विधि के बिना किसी अन्य के द्रव्यों को ग्रहण करना 'स्तेय' है और उसके प्रतिषेध (अभाव) एवं मन से भी अन्य के द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा के अभाव को 'अस्तेय' कहा जाता है। ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत __ शास्त्रोक्त भाषा में इस व्रत को 'सर्वमैथुन-विरमण' कहते हैं। मन, वचन और काय से सर्वथा मैथुनवृत्ति का त्याग करना 'ब्रह्मचर्य-महाव्रत' है। आ० हेमचन्द्र के अनुसार दिव्य अथात देवताओं के वैl शरीर तथा मनुष्य और तिर्यञ्च जाति के औदारिक शरीर से संबंधित कामभोगों (मैथुनवृत्ति) का मन, वचन और काय से सेवन करने, कराने और अनुमोदन करने का त्याग करना 'ब्रह्मचर्य है। आ० हेमचन्द्र ने १८ प्रकार के मैथुन त्याज्य होने से ब्रह्मचर्य महाव्रत को भी १८ प्रकार का माना है। देवता-संबंधी रतिसुख मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और अनुमोदन के भेद से त्रिविध-त्रिविध (३ x ३ = ६) विरति रूप होने से ६ प्रकार का होता है। इसी तरह औदारिक संबंधी काम के भी ६ भेद होते हैं। इस प्रकार १८ प्रकार का ब्रह्मचर्य-महाव्रत होता है। जैनागमों में ब्रह्मचर्य-महाव्रत की महिमा का गुणगान करते हुए पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जैन-परम्परा में ब्रह्मचर्य-व्रत का अत्यन्त कठोरता से पालन करने का आदेश दिया गया है। श्रमण के लिए इस व्रत में किसी प्रकार का अपवाद स्वीकार्य नहीं है। ब्रह्मचर्य-महाव्रत की भावनाएँ ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हेतु जैन शास्त्रों में निम्नलिखित पांच भावनाओं का निरूपण किया गया है - ३. योगशास्त्र, १/२८, २६: मूलाराधना ३३६: तत्त्वार्थाधिगमभाष्य,७/३ स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणम्, तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति ।।- व्यासभाष्य, पृ० २७७-७८ योगशास्त्र, १/२३ योगशास्त्र, १/२३ पर स्वोपज्ञवृत्ति पृ० १२० आचारांगसूत्र, १/५/२/१०७; दशवैकालिकसूत्र, अ०४ योगशास्त्र १/३०, ३१; मूलाचार ३४०; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ७/३ ॐज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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