SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन १. स्त्री-षण्ट-पशमद्वेश्मासनकुड्यान्तरत्याग ब्रह्मचारी साधक द्वारा स्त्री, नपुंसक और पशुओं के रहने के स्थान तथा उनके बैठे हुए आसन या आसन वाले स्थान का त्याग करना। इसी प्रकार जहाँ कामोत्तेजक या रतिसहवास के शब्द सुनाई दें, बीच में केवल एक पर्दा, टट्टी या दीवार हो, ऐसे स्थान का भी त्याग करना। २. सरागस्त्रीकथात्याग राग उत्पन्न करने वाली स्त्री-कथाओं का त्याग करना अथवा रागपूर्वक स्त्रियों के साथ बातें करने का त्याग करना। ३. प्रारतिस्मृतिवर्जन ब्रह्मचर्य अवस्था स्वीकार करने से पूर्व अनुभव (पूर्वरतिबिलासस्मरणत्याग) की हुई रतिक्रीड़ा के स्मरण का त्याग करना। ४. स्त्रीरम्यांगेक्षण-स्वाङ्ग-संस्कारपरिवर्जन । स्त्री के कामवर्धक और मनोहर अंगों की ओर देखने तथा अपने शरीर पर शोभावर्द्धक श्रृंगार प्रसाधन या सजावट का त्याग करना। ५. प्रणीतात्यशनत्याग या प्रणीतरसभोजनत्याग अति स्वादिष्ट, प्रमाण से अधिक आहार का त्याग करना। पतञ्जलि के योगसूत्र में भी 'ब्रह्मचर्य' को चतुर्थ महाव्रत माना गया है। भाष्यकार व्यास के अनुसार गुप्तेन्द्रिय अर्थात् उपस्थ का संयम 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है।' भावागणेश एवं नागोजीभट्ट ने अष्टविध मैथुन के त्याग को 'ब्रह्मचर्य कहा है। ५. अपरिग्रह-महाव्रत इसका जैन आगमोक्त नाम 'सर्वपरिग्रह-विरमण' है। महाव्रती साधक को संयम की सिद्धि हेतु मन, वचन और काय से बाह्य एवं आभ्यन्तर सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करना चाहिए। अविद्यमान पदार्थों में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से मूर्छा होने से मन में अशांति बनी रहती है और मन में अनेक प्रकार के विकल्पजाल अथवा विकार उठते रहते हैं। इसलिए आ० हेमचन्द्र ने पदार्थों के त्याग की अपेक्षा उन पर होने वाली मूर्छा के त्याग को अपरिग्रह की कोटि में परिगणित किया है। अपरिग्रह की महत्ता का वर्णन करते हुए आ० शुभचन्द्र लिखते हैं कि मन व इन्द्रियों को स्वाधीन करके समस्त परिग्रह से निर्मुक्त साधक ही ध्यान की धुरा को धारण कर सकता १. ब्रह्मचर्यगुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः 1- व्यासभाष्य, पृ० २७५ ब्रह्मचर्यमष्टविधमैथुननिवृत्तिः । भावागणेशवृत्ति, पृ० ६२ ब्रह्मचर्यमष्टविधमैथुनत्यागः । नागेशभट्टवृत्ति, पृ०६२ ४. योगशास्त्र, १/२४ ५. ज्ञानार्णव, १६/४१ m Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy