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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
तीन योग से असत्य वचनों का त्याग करता है। यह महाव्रत, आगम-ज्ञान एवं यम का आधार, विद्या व विनय का भूषण तथा चारित्र और ज्ञान का बीज है। इसलिए श्रमणधर्म को स्वीकार करने वाले व्यक्ति को 'सत्य-महाव्रत' का पालन अवश्य करना चाहिए। जैन शास्त्रों में कहा गया है कि सत्य-महाव्रत के आराधक श्रमण को सदा मौन ही रहना चाहिए। परन्तु यदि बोलना आवश्यक हो तो ऐसे वचन बोलने चाहिएँ, जो प्रिय, सत्य और सर्वहितकारी हों। यदि धर्म का नाश होता हो, क्रियाकांड विध्वंस होता हो, स्वसिद्धान्तों का अर्थ नष्ट होता हो, तो उनका स्वरूप प्रकाशित करने के लिए बिना पूछे भी बोलना चाहिए।
सत्य-महाव्रत की भावनाएँ
जैन शास्त्रकारों के अनुसार सत्य-महाव्रत को पुष्ट करने में निम्मलिखित पांच भावनाएँ सहायक
१. हास्य-प्रत्याख्यान हंसी-मजाक में भी असत्य भाषण का त्याग करना।
लोभ-प्रत्याख्यान लोभ के वशीभूत होकर धन की आकांक्षा से असत्य वचन न बोलना। ३. क्रोध-प्रत्याख्यान क्रोध के आवेश में आकर कठोर वचनों या असत्य वचनों को न बोलना। भय-प्रत्याख्यान प्राणों की रक्षा या प्रतिष्ठा आदि जाने के भय से असत्य-भाषण का त्याग
करना। ५. आलोच्य-भाषण अज्ञानतापूर्वक कटु सत्य अथवा शीघ्रता और चपलता से बिना विचार
किए न बोलना, विचारपूर्वक बोलना। पातञ्जलयोगसूत्र के अनुसार सत्य को द्वितीय महाव्रत मानते हुए वाणी तथा मन के यथार्थत्व को 'सत्य' कहा गया है। भाष्यकार व्यास इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जैसा प्रत्यक्ष देखा गया, सुना गया और तर्क द्वारा अनुमान किया गया हो, वैसा ही मन और वाणी का होना सत्य है। यदि मन में कुछ अन्य हो और वाणी से कुछ अन्य बोला जाए तो वह सत्य नहीं कहलाता। जो वंचित, भ्रान्त तथा प्रतिपत्तिवन्ध्य न हो, वही वाक्य 'सत्य' कहा जाता है।
३. अस्तेय-महाव्रत
आगमोक्त भाषा में इस महाव्रत को 'सर्व अदत्तादान-विरमण' कहा जाता है। मन, वचन, काय रूप तीन योगों तथा तीन करणों से चौर्यकर्म का त्याग करना 'अस्तेय' या 'अचौर्य-महाव्रत' है। मोक्षमार्ग में स्थिरता प्राप्त करने के लिए गुणों के भूषण स्वरूप अचौर्य व्रत का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। इस महाव्रत में श्रमण को सूक्ष्म से सूक्ष्म चोरी का भी परित्याग करना पड़ता है। उसके अचौर्य और अदत्तादान की सीमा बहुत विस्तृत होती है।
१. दशवैकालिकसूत्र, अध्ययन ४ २. ज्ञानार्णव, ६/२७ ३. ज्ञानार्णव, ६/१
वही, ६/६; अनगारधर्मामृत, ४/४४ ज्ञानार्णव, ६/१५ योगशास्त्र, १/२७ सत्यं यथार्थ वाङ्मनसे । यथादृष्टं यथानुमितं यथाश्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति। परत्र स्वबोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वञ्चिता
भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवन्ध्या वा भवेदिति। - व्यासभाष्य, पृ० २७६ ८. ज्ञानार्णव, १०/१
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