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योग और आचार
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प्रकार हैं – १. अहिंसा-महाव्रत, २. सत्य-महाव्रत, ३. अस्तेय-महाव्रत, ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत और ५. अपरिग्रहमहाव्रत। १. अहिंसा-महाव्रत
अहिंसा-महाव्रत सभी व्रतों में प्रधान एवं महत्वपूर्ण है। इसे समस्त व्रतों का सरताज तथा व्रत-रत्नों की खान कहा गया है। आ० शुभचन्द्र ने इसे सत्यादि उत्तरवर्ती व्रत समूह का कारण बताते हुए लिखा है कि सत्यादि सब व्रतों की स्थिति अहिंसा-महाव्रत पर टिकी हुई है। जीवन पर्यन्त त्रस और स्थावर सभी प्रकार के जीवों की मन, वचन और काय रूप तीन योगों से तथा कृत, कारित और अनुमोदन रूप तीन करणों से किसी प्रकार की हिंसा न करना 'अहिंसा महाव्रत' है। अहिंसा-महाव्रत की भावनाएँ -
जैन शास्त्रों के अनुसार अहिंसा-महाव्रत की निम्नलिखित पांच भावनाएँ हैं - १. मनोगुप्ति भावना मन को शुभ और शुद्ध ध्यान में लगाए रखना, राग-द्वेष के सूचक
संकल्प-विकल्पों को छोड़कर मन को समताभाव में स्थापित
करना। २. एषणासमिति भावना वस्त्र, पात्र, आहार, स्थान आदि वस्तुओं का गवेषण, ग्रहण या
उपयोग रूप तीन एषणाओं में दोष न लगने देना, निर्दोष वस्तु
का ग्रहण या उपयोग करना। ३. आदानसमिति भावना पाद, पादपीठ, वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों को लेते व छोड़ते
समय सावधानी बरतना, ताकि किसी जीव की विराधना न हो। ईर्यासमिति भावना प्रमादरहित होकर सावधानीपूर्वक मार्ग पर सम्यक दृष्टि रखते
हुए, किसी जीव की विराधना किए बिना गमनागमन करना। दृष्टान्नपान ग्रहण या आहार-पानी को भली-भांति देखकर लेना और उपलक्षण से आलोकित पान भोजन आहार के समय भी अहिंसा-भाव रखना। भावना
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ये पांचों भावनाएँ 'अहिंसा-महाव्रत' को पुष्ट करती हैं और उसे स्थिरता प्रदान करती हैं। पतञ्जलि के योगसूत्र में भी 'अहिंसा-महाव्रत' की चर्चा मिलती है। भाष्यकार व्यास एवं अन्य टीकाकारों ने समस्त प्राणियों के प्रति द्रोह न करने, उन्हें पीड़ा न पहुचाने को 'अहिंसा महाव्रत' कहा है।
२. सत्य-महाव्रत
जैनागमोक्त भाषा में इसे
द-विरमण' कहते हैं। इस महाव्रत में श्रमण साधक तीन करण एवं
3.
ज्ञाना
मूलाचार, ४; उत्तराध्ययनसूत्र, २१/१२: ज्ञानार्णव, ८/५ योगशास्त्र, १/१८.१६ २. अनगारधर्मामृत, ४/३५
ज्ञानार्णव, ८/६ ज्ञानार्णय. ८/७
योगशास्त्र, १/२६: मूलाराधना, ३३७; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ७/३३ ६. व्यासभाष्य, पृ० २७५ ; नागोजीभट्टवृत्ति, पृ० ६२; भावागणेशवृत्ति, पृ० ६२
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