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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
पर जैनधर्म को श्रमणधर्म तथा जैन संस्कृति को श्रमणसंस्कृति कहा जाता है। श्रमणधर्म को ही उत्सर्ग माना जाता है, क्योंकि वही मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् मार्ग है। श्रमणधर्म धारण किये बिना मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती। जो श्रमणधर्म धारण करने में असमर्थ होते हैं, किन्तु उसमें आस्था रखते हैं, वे भविष्य में श्रमण बनने की भावना से ही श्रावकधर्म को अंगीकार करते हैं। अतः श्रावकधर्म अपवादधर्म है और श्रमणधर्म यथार्थधर्म है।
'श्रमण' शब्द 'श्रम्' धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है - परिश्रम करना । इस व्युत्पत्ति के आधार पर मोक्षमार्ग अथवा आत्मशुद्धि में परिश्रम करने वाले को 'श्रमण' कहा जाता है। आ० हरिभद्र ने दशवैकालिक वृत्ति में तप और परिश्रम को पर्यायवाची मानते हुए श्रम यानि परिश्रम करने वाले और तप करने वाले दोनों को 'श्रमण' कहा है। दूसरे शब्दों में जो साधक परिश्रम करता है, तप से शरीर को कष्ट पहुँचाता है, वह 'श्रमण' कहलाता है। __जैन-परम्परा में श्रमण के लिए २८ मूलगुण और सत्तर उत्तरगुणों का विधान प्रस्तुत किया गया है। मूलगुणों में पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का निरोध (त्रिविध गुप्ति), छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षिति, अदन्त-धावन, स्थिति-भोजन और एक भुक्ति परिगणित हैं।।
उक्त २८ मूलगुण दिगम्बर-परम्परा में वर्णित हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में इससे भिन्न २७ मूलगुणों का उल्लेख मिलता है। समवायांग सूत्र के अनुसार २७ मूलगुण इस प्रकार हैं - पांच महाव्रत, पांच इन्द्रियों का संयम, चार कषायों का परित्याग, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, विरागता, मन-वचन-काय का निरोध, ज्ञान, दर्शन और चारित्र से संपन्नता, कष्ट-सहिष्णुता और मरणान्त-कष्ट को सहना। शुभचन्द्र ने श्रमणाचार के अन्तर्गत पंच महाव्रत, पांच समिति और त्रिविध गुप्ति को ही समाविष्ट किया है।" (क) महाव्रत _ 'महाव्रत' में महान् शब्द महत्व और प्राधान्य अर्थ में गृहीत है। जो महान् व्रत हैं वे महाव्रत कहलाते हैं। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि महाव्रत अनन्त ज्ञानादि रूप महाफल को प्रदान करते हैं अर्थात् उनको धारण करने पर ही अनन्त ज्ञानादि रूप महाफल की प्राप्ति होती है। महाफल की प्राप्ति के हेतुभूत होने से ये महाव्रत कहे जाते हैं। दूसरे ये गणधर अथवा इन्द्र आदि महापुरुषों द्वारा आचरित हैं। तीसरे ये स्वयं महान् हैं, क्योंकि इनमें स्थूल और सूक्ष्म सब प्रकार की हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह का सर्वथा त्याग किया जाता है। वस्तुतः इन महाव्रतों में लोभ, मोह और क्रोध की पूर्णतः निवृत्ति हो जाती है। जिसप्रकार विविध भावनाओं से भावित करने से औषधियाँ रसायन बनकर पुष्टिदायक बन जाती है, उसीप्रकार शास्त्रों में महाव्रतों की पुष्टि तथा शुद्धि हेतु पांच-पांच भावनाओं का विवेचन किया गया है। और कहा गया है कि ये भावनाएँ मुक्ति-प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती हैं। पांच महाव्रतों के नाम इस
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कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रस्तावना, अनगारधर्मामृत, (आशाधर) पृ० १४ २. श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः । - दशवैकालिकसूत्र १/३ पर हरिभद्र वृत्ति
श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः। - सूत्रकृतांगसूत्र, १/१६/१पर शीलां० टीका, पृ० २६३ मूलाचार २-३; योगसारप्राभृत, ८/६-७: प्रवचनसार ३/८-६ पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इन्दिअनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेवकरणं तु।। - धर्मसंग्रह (उत्तर भाग), अधिकार ३, गा० ४७ पर यशो० कृत व्याख्या, पत्र १३० समवायांगसूत्र, २७ वाँ समवाय। ज्ञानार्णव, ८/२ (१, ३. ४) ज्ञानार्णव, १८/१. (१).२
ज्ञानार्णव, १८/२: योगशास्त्र, १/१६ १०. योगशास्त्र, १/२५
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