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________________ योग और आचार 167 आत्महत्या (आत्मघात) का मूल कारण है - कषाय, जबकि सल्लेखना में शरीर का त्याग गौण है और कषायों का त्याग प्रधान है।' सल्लेखना का मूल आधार है – शरीर और आत्मा में आने वाले विकारों को कृश करना। इस कारण सल्लेखना कालमृत्यु है, अकालमृत्यु नहीं। इसमें मोह का अभाव होता है। सल्लेखना के अन्तर्गत कषायों को कुश करने पर अधिक बल दिया गया है। अतः सल्लेखना में राग-द्वेषात्मक वृत्ति का अभाव होता है, जबकि आत्मघात तो राग-द्वेषात्मक वृत्ति की प्रबलता होने पर किया जाता है। आत्मघात में मृत्यु की इच्छा की जाती है, किन्तु सल्लेखना में जीवन या मरण की इच्छा नहीं होती। अपितु वह तो मृत्यु या अन्य कोई दुःसाध्य आपत्ति आ जाने पर प्रसन्नतापूर्वक शरीर-त्याग करने की एक प्रक्रिया है। सल्लेखना में किसी प्रकार के भोगों की इच्छा नहीं होती, जबकि आत्मघात करने वाला व्यक्ति इच्छित भोगों के न मिलने के कारण आत्महत्या करता है। इसके विपरीत सल्लेखना करने वाला व्यक्ति किसी प्रकार की इच्छा नहीं करता। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि आत्मघात में एक प्रकार का तनाव होता है जबकि सल्लेखना में शान्ति । आत्मघात डरकर पलायनवादी प्रकति के कारण बिना किसी विचार के छिपकर किया जाता है, जबकि सल्लेखना का आधार पराक्रम है, आध्यात्मिक निर्भीकता है। इसमें परिस्थिति से पलायन न करके समझौता किया जाता है। इसे एक जीवन दर्शन के आधार पर घोषणापूर्वक सबके सम्मुख किया जाता है, छुपकर नहीं। इसलिए सल्लेखना को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में वर्णित सल्लेखना प्रयत्नपूर्वक मरण (आत्महत्या) नहीं है, बल्कि आई हई मृत्यु का वीरतापूर्वक वरण है अर्थात् जब शरीर अपने उपयोग का न रह जाए और उसके पालन-पोषण के लिए किया जाने वाला प्रयत्न निरर्थक प्रतीत हो रहा हो, तब उस स्थिति में सल्लेखनाव्रत द्वारा शरीर-त्याग को उचित माना गया है, जबकि वैदिक-परम्परा में अपनी इच्छानुसार प्राणोत्सर्ग को पाप के रूप में स्वीकार किया गया है. क्योंकि ईशोपनिषद के अनुसार आत्महनन करने वाले लोग असूर्य लोकों को प्राप्त करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जैन आचार के नियम अपेक्षाकृत अधिक व्यापक एवं कठोर हैं। श्रमणाचार जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है और निवृत्ति का मार्ग साधुमार्ग है। जैन-परम्परा में साधु के लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग हुआ है। धर्म का मूल आधार और केन्द्रबिन्दु 'साधु' यानि 'श्रमण' ही है। उसी के नाम ॐ १. कसाए पयणुए किच्या, समाहियच्चे फलगावयट्ठी उहाए भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे। - आचारांगसूत्र, १/८/६/१०५ सम्यक्काय-कषायलेखना सल्लेखना। - सर्वार्थसिद्धि,७/२२ रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशास्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं घ्नतः स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः - सर्वार्थसिद्धि,७/२२ जीवियं णाभिकंखेज्जा, मरणं णो विपत्थए। दुहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा।। - आचारांगसूत्र, १/८/८/४ भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि। इच्छालोभ ण सेवेज्जा, सुहुमं वण्णं सपेहिया।। - आचारांगसूत्र, १/८/८/२३ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १६८ ७. ईशोपनिषद्, (उपनिषत्संग्रह), ३ ॐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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