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________________ 164 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन आ० हेमचन्द्र के अनुसार जो श्रावक उक्त बारह व्रतों का निरतिचार पालन करता हुआ अपने धन को सात क्षेत्रों (जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, जिनआगम, साधु-क्षेत्र, साध्वी-क्षेत्र, श्रावक-क्षेत्र, श्राविका-क्षेत्र) में भक्तिपूर्वक तथा अति दीनजनों में दयापूर्वक लगाता है, वह महाश्रावक कहलाता है।' (ग) गृहस्थ योगी की विशिष्ट साधना : प्रतिमा श्रावक द्वारा सम्यकत्वपूर्वक उपरोक्त बारह व्रतों को ग्रहण किये जाने पर भी विशिष्ट साधना के रूप में जैन आगमों तथा उत्तरवर्ती साहित्य में कुछ विशिष्ट प्रतिज्ञाएँ लेने का विधान प्रस्तुत किया गया है। शास्त्रों में इन विशिष्ट प्रतिज्ञाओं को प्रतिमा (पडिमा) कहा गया है। प्रतिमा का अर्थ है - विशिष्ट साधना की प्रतिज्ञा, जिसमें श्रावक संकल्पपूर्वक अपने स्वीकृत यमनियमों (श्रावकाचार) का दृढ़ता से पालन करता है। श्रावक में जब श्रमण के सदृश जीवन व्यतीत करने की इच्छा उत्पन्न होती है तब वह इन प्रतिमाओं का आश्रय लेता है। चूंकि प्रतिमाओं की आराधना करने वाले श्रावक का जीवन एक प्रकार से श्रमण-जीवन की ही प्रतिकृति होता है, इसलिए उसके द्वारा स्वीकृत व्रतविशेष प्रतिमा' कहे जाते हैं। शास्त्रों में श्रावक के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है।" हेमचन्द्र के योगशास्त्रानुसार इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - १. दर्शन-प्रतिमा शंकाादि दोषरहित, प्रशमादि लक्षणों से युक्त स्थैर्यादि भूषणों से भूषित, मोक्षमार्ग में महल की नींव के समान सम्यग्दर्शन का विशुद्ध रूप से निरन्तर एक मास तक पालन करना। व्रत-प्रतिमा पूर्वप्रतिमा सहित बारह व्रतों का निरंतर निरतिचार एवं अविराधित रूप से पालन करना। ३. सामायिक प्रतिमा पूर्वप्रतिमाओं की साधना करते हुए दोनों समय अप्रमत्त रूप से ३२ दोषों से रहित निरन्तर शुद्ध सामायिक (समताभाव) की साधना करना। ४. पौषध-प्रतिमा पूर्वप्रतिमाओं का अनुष्ठान करते हुए निरतिचार रूप से चार मास तक प्रत्येक चतुष्पर्वी पर पौषध का पालन करना । पौषधव्रत में श्रावक देशतः प्रवृत्ति कर सकता है, परन्तु पौषध-प्रतिमा में उसका पूर्णतः पालन अपेक्षित है। ५. कायोत्सर्ग-प्रतिमा पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं का पालन करते हुए पांच मास तक प्रत्येक चतुष्पी में घर के अन्दर, घर के द्वार पर अथवा चौक में परीषह-उपसर्ग में रात भर बिना हिले-डुले काया के व्युत्सर्ग रूप में कायोत्सर्ग करना। ६. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा पूर्व प्रतिमाओं का अनुष्ठान करते हुए छह महीने तक त्रिकरणयोग से निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करना। | १. योगशास्त्र,३/११६ (क) प्रतिमाप्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेति यावत्। - स्थानांगवृत्ति, पत्र, ६४. पृ.४३ (ख) प्रतिमा अभिग्रहाः । - वही, पत्र, ३५१, पृ.१६८ ३. जैन आचार, पृ० १२५ समवायांगसूत्र, ११/७१. पृ० २६-३०; सागारधर्मामृत, १/१७, ७/१-४६; योगशास्त्र,३/१४७ पर स्वो० वृति ५. द्रष्टव्य : योगशास्त्र, ३/१४७ पर स्वो० वृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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