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________________ योग और आचार 165 فر نمی و ७. सचित्तवर्जन-प्रतिमा नौ महीने तक सचित्त पदार्थ के सेवन का त्याग करना। आरम्भवर्जन-प्रतिमा आठ मास तक स्वयं हिंसात्मक क्रियाओं का त्याग करना। प्रेष्यवर्जन-प्रतिमा नौ मास तक दूसरे से भी हिंसात्मक क्रियाओं का त्याग कराना। उद्दिष्टभक्तवर्जन दस मास तक अपने लिए तैयार किये हुए आहार का त्याग करना। (त्याग)-प्रतिमा ११: श्रमणभूत-प्रतिमा ग्यारह मास तक स्वजन आदि की संगति छोड़कर रजोहरण, पात्र आदि साधुवेश धारण कर साधु के समान चर्या करना, सिर के बालों का लोच या मुंडन करना तथा अन्य क्रियाएँ भी सुसाधु के सदृश करना। गृहस्थ उक्त ११ प्रतिमाओं को क्रमशः धारण करता हुआ आत्मिक विकास करते-करते उत्कृष्ट श्रावक बन जाता है। उत्तर-उत्तर की प्रतिमा को धारण करता हुआ श्राव की प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता हुआ साध्वाचार की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयत्न करता है। (घ) श्रावक के छह कर्म जैन परम्परा में उपर्युक्त बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमाओं के साथ-साथ श्रावक के लिए छह नित्य कर्मों का विधान भी प्रस्तुत किया गया है। इनके नाम हैं- १. देवपूजा, २. गुरुसेवा, ३. स्वाध्याय, ४. संयम, ५. तप एवं ६. दान। आ० हेमचन्द्र ने महाश्रावक की दिनचर्या की प्ररूपणा करते हुए उक्त छ: आवश्यक कर्मों को उसी में अन्तर्भूत कर दिया है। उन्होंने स्वाध्याय से पूर्व आवश्यक कर्मों (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान की साधना अनिवार्य मानी है। आवश्यक कर्मों के संबंध में उन्होंने आगमवचनानुसार श्रावकों के लिए भी प्रतिक्रमण करने का विधान प्रस्तुत किया है। ___ श्रावक के लिए निर्धारित उक्त छह आवश्यक कर्म आ० हरिभद्र द्वारा निरूपित 'पूर्वसेवा' तथा आ० हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित 'महाश्रावक की दिनचर्या में परिगणित किए गए हैं। शैली में भिन्नता होने पर भी इनका मूल उद्देश्य समान है। इन सबका मूल उद्देश्य श्रावक के जीवन को व्यवस्थित एवं नियमित बनाना है। इन कर्त्तव्य-कर्मों के अनुकूल आचरण करने से ही श्रावक जीवन-ध्येय में सफलता प्राप्त कर कल्याण और निर्वाण का अधिकारी होता है। गृहस्थ के छह आवश्यकों (नित्यधर्मों) का निरूपण पीछे किया जा चुका है। उन छः आवश्यकों में संयम और तप का परिगणन है। श्रावक यथाशक्ति अपने जीवन में संयम व तप की आराधना करता है। मृत्यु के समय प्राण-हानि की संभावना से आकुलता होती है जिससे श्रावक का संयमपथ से विचलित हो जाना स्वाभाविक है। जैन आचारशास्त्र के अनुसार सल्लेखना-विधि का निर्देश दिया गया है जो साधक के पूर्व संयममय जीवन को प्रमाणित करने वाली एक कसौटी है। यदि साधक सल्लेखना-विधि के अनुसार शांतिपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करता है तभी उसके संयममय जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २३६ देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।। - यशस्तिलकचम्पू ८/९५४; उपासकाध्ययन, ४६/६११ ततश्च सन्ध्यासमये, कृत्वा देवार्चनं पुनः । कृतावश्यककर्मा च, कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम्।। - योगशास्त्र, ३/१२६ ४. योगशास्त्र, ३/१२६ पर स्वोपज्ञवृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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