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________________ योग और आचार है।' उक्त लक्षणानुसार पौषधव्रत में श्रावक चार प्रकार का त्याग करता है १. आहार, २. शरीर-सत्कार अर्थात् श्रृंगार-प्रसाधन, ३. अब्रह्मचर्य और ४. सभी सांसारिक क्रियाकलाप । पौषधोपवासव्रत के अतिचार ‍ १. २. ३. ४. ५. १. अप्रत्युपेक्षित- दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक ३. अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्या-संस्तारक पाट-चौकी, शय्या, आसन आदि को देखे और प्रमाणित किए बिना रखना और उठाना। २. अप्रत्युपेक्षित- दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार-प्रसवणभूमि भूमि को देखे और प्रमार्जित किए बिना मल-मूत्र का उत्सर्ग करना । झाड़े-पोछे बिना अथवा व्याकुलचित्त से झाड़-पोंछकर शय्या व आसन बिछाना । मल-मूत्रादि के विसर्जन के समय भूमि को बिना देखे ही (बिना प्रमार्जित किए ) अथवा अधीरता से देखकर उनका विसर्जन करना । समस्त आहारादि विषयक पौषधोपवासव्रत का भली-भांति पालन न करना । ४. अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित उच्चारादिभूमि ५. सम्यक् अननुपालनता ४. अतिथि संविभागव्रत श्रावक के लिए निर्धारित १२ व्रतों में अन्तिम तथा शिक्षाव्रतों में चतुर्थ व्रत 'अतिथि संविभागव्रत' है । न्याय से उपार्जित अपने आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि कल्पनीय देय पदार्थों में से यथोचित अंश निर्दोष भिक्षा के रूप में साधु-साध्वियों को दान देना, 'अतिथि संविभागव्रत' है। अतिथि का अर्थ है - जिसके आगमन की कोई निश्चित तिथि न हो, जिसके कोई पर्व या उत्सव आदि नियत न हों। ऐसे व्यक्तियों के लिए यथायोग्य अपने भोज्य पदार्थ के समुचित विभाग करना 'यथासंविभाग' या 'अतिथि संविभागव्रत' कहलाता है। इस प्रकार अतिथि संविभागव्रत के कारण गृहस्थआश्रम मुनि संस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । अतिथि संविभागव्रत के अतिचार १. सचित्तनिक्षेप २. सचित्तपिधान ३. कालातिक्रमदान ४. परव्यपदेश ५. मात्सर्य 163 Jain Education International अतिथि को देने योग्य पदार्थ सचित्तपात्र में रखना । अतिथि को देय भोज्य वस्तु को सचित्त फल या पत्ते आदि से ढ़ककर योगशास्त्र, ३/८५ श्रावकप्रज्ञप्ति ३२१ श्रावकप्रज्ञप्ति ३२३: योगशास्त्र, ३/११७ श्रावकप्रज्ञप्ति ३२३, ३२६: योगशास्त्र, ४ / ८७ श्रावकप्रज्ञप्ति ३२७: योगशास्त्र, ३/११८ रखना । दान देने के समय का उल्लंघन करना । दान न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे को बताना । ईर्ष्यावश अथवा अहंकार से युक्त होकर दान देना अथवा दान के प्रति आदरभाव न रखना। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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