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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
ही सच्चे अर्थों में सामायिक माना है जो, त्रस और स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है।' सामायिकव्रत के अतिचार
मनोदुष्प्रणिधान अशुभ प्रवृत्तियों में मन को लगाना, मन में अशुभ विचार आना। वचन-दुष्प्रणिधान सामायिक करते समय कटु, कर्कश, निष्ठुर या असभ्य अथवा
अपशब्द बोलना। काय-दुष्प्रणिधान सामायिक में बार-बार शरीर को हिलाना, अशुभ व्यापारों में प्रवृत्त
होना, अकारण शरीर को सिकोड़ना, फैलाना इत्यादि। स्मृत्यकरणता सामायिक का समय, पाठ अथवा पाठ की पूर्णता या अपूर्णता की
स्मृति का अभाव होना (भूल जाना) अथवा स्मृतिभंग होना। ५.. अनवस्थितकरण सामायिक के प्रति अनादर भाव रखते हए सामायिक को समय
से पूर्व ही समाप्त कर देना, यथावस्थित सामायिक न करना। २. देशावकाशिकव्रत
'देश' का अर्थ है - दिग्व्रत में गृहीत देश का एक अंश। उसमें अवकाश होने से इस व्रत की 'देशावकाशिक' संज्ञा सार्थक है। दिग्वत नामक प्रथम गणव्रत में दशों दिशाओं में गमनागमन की जो सीमा. निर्धारित की गई है, वह कुछ विस्तृत प्रमाण में और यावज्जीवन अर्थात जीवन पर्यन्त के लिए है। उस निश्चित मर्यादा को एक दिन-रात के लिए, उपलक्षण से पहर आदि से घटा कर आवागमन के क्षेत्र और भोग्योपभोग्य पदार्थों की मर्यादा को संकुचित कर देना 'देशावकाशिकव्रत' है। देशावकाशिकव्रत के अतिचार
१. आनयन मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तुएँ मंगवाना। २. प्रेष्य-प्रयोग स्वयं नियम का पालन करते हुए मर्यादित क्षेत्र के बाहर कार्य करने की
आवश्यकता पड़ने पर स्वयं न जाकर दूसरे को भेजना। ३. शब्दानुपात मर्यादित क्षेत्र के बाहर प्रयोजन के उपस्थित होने पर स्वयं न जाकर
छींकना, खांसी आदि शब्द संकेतों द्वारा काम निकालना। ४. रूपानुपात मर्यादित क्षेत्र के बाहर खडे व्यक्ति को अपना रूप दिखाकर बुलाना।
५. पुद्गल-क्षेपण मर्यादित क्षेत्र के बाहर कंकड़ आदि फेंक कर अपना प्रयोजन प्रकट करना। ३. पौषधोपवासव्रत या पौषधव्रत
पौषध का अर्थ है - अपनी आत्मा को पुष्ट करना। उपवास का अर्थ है - भोजन का त्याग । आ० हेमचन्द्र के अनुसार चार पर्व तिथियों (अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या) में उपवास करके अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन एवं स्नान-श्रृंगारादि का त्याग करना ‘पौषध' या 'पौषधोपवासव्रत'
आवश्यकनियुक्ति, गा०७६७ श्रावकप्रज्ञप्ति, ३१२; योगशास्त्र, ३/११५ श्रावकप्रज्ञप्ति, ३१८; योगशास्त्र, ३/८४ श्रावकप्रज्ञप्ति, ३२०, योगशास्त्र, ३/११६
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