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योग और आचार
शिक्षाव्रत
शिक्षाव्रत चार माने गये हैं १. सामायिकव्रत, २. देशावकाशिकव्रत ३ पौषधव्रत और ४. अतिथिसंविभागव्रत। इन चारों ही शिक्षाव्रतों का उद्देश्य वैराग्य भावना को पुष्ट करना है क्योंकि वैराग्य की पुष्टि के बिना किया गया अभ्यास साधना की पूर्णता तक नहीं पहुँच पाता। पतञ्जलि ने भी इसीलिए चित्तवृत्ति के निरोध के लिए अभ्यास और वैराग्य को रथ के दो पहिए के समान सहचारी माना है। शिक्षाव्रतों को अन्य व्रतों से भिन्न रूप में परिगणित करने का एक कारण यह भी है कि अणुव्रत और गुणव्रत यावज्जीवन पालनीय होते हैं, जबकि शिक्षाव्रत अल्पकाल तक ही अभ्यास योग्य माने गये हैं। आ० हरिभद्र ने शिक्षाव्रतों को मोक्ष प्राप्त कराने का मुख्य साधन माना है।
१. सामायिक
मन, वचन, काय से, एक नियत समय तक हिंसादि पांच अशुभ प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना, रागद्वेष रहित होना, सर्वजीवों में समता भाव रखना, आर्त व रौद्र ध्यान का त्याग करना सामायिक शिक्षाव्रत' है।' अनेक ग्रन्थों में सावद्ययोग के परित्याग और निरवद्ययोग के आसेवन को 'सामायिक' कहा गया है।"
'सामायिक' शब्द सम, आय और इक इन तीन पदों से मिलकर बना है। 'सम' का अर्थ है - समता और 'आय' का अर्थ है ज्ञानादि का लाभ इस प्रकार समाय' का अर्थ हुआ 1- समभाव या समत्ववृत्ति की प्राप्ति । वह क्रिया जिससे समभाव की प्राप्ति होती है वह 'सामायिक' है। राग-द्वेष को नष्ट कर सब प्राणियों को आत्मवत् समझने से ही समत्वभाव की उपलब्धि होती है। अतः सामायिक का अर्थ और उद्देश्य प्राणिमात्र को आत्मवत् समझते हुए समत्व का व्यवहार करना अर्थात् प्रत्येक प्राणी के प्रति समभाव रखना है। आगमों में सामायिक के लक्षण का निर्देश निरुक्तिपूर्वक अनेक प्रकार से किया गया है। यथा'सम' का अर्थ राग द्वेष से रहित और 'अय' का अर्थ गमन है। इसप्रकार समगमन का नाम 'समाय' है और यह समाय ही 'सामायिक' है। अथवा उक्त 'समाय' में होने वाली, उससे निर्वृत्त, तन्मय अथवा उक्त प्रयोजन के साधक की प्रवृत्ति को 'सामायिक जानना चाहिए। अथवा 'सम' से सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र अभिप्रेत हैं उनके विषय में या उनके द्वारा जो अयगमन या प्रवर्तन है, उसका नाम 'समय' और उस समय को ही 'सामायिक' कहा जाता है। अथवा सम के राग-द्वेष से रहित जीव के जो आय-गुणों की प्राप्ति होती है उसका नाम समय है, अथवा समों का अर्थात् सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का जो आय (लाभ) है उसे सामायिक समझना चाहिए। अथवा साम का अर्थ मैत्रीभाव और 'अय' का अर्थ गमन है, इस प्रकार मैत्रीभाव में या उसके द्वारा जो प्रवृत्ति होती है, वह 'सामायिक' है । अथवा उक्त मैत्रीभाव रूप जो साम है उसके आय (लाभ) को सामायिक समझना चाहिए।' केवली भगवान ने उस साधक की सामायिक को
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श्रावकप्रज्ञप्ति २९२
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः पातञ्जलयोगसूत्र १/१२
श्रावकप्रज्ञप्ति, ३२८
श्रावकप्रज्ञप्ति २६२ पर स्वो० वृत्ति
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय १४८६: योगशास्त्र ३/८२: आवकप्रज्ञप्ति २६२ पर स्वो० वृत्ति
श्रावकप्रज्ञप्ति, २६२: आवश्यकसूत्र, ६/६ : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४/७; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, ६/६ एवं हरिभद्रवृत्ति श्रावकप्रज्ञप्ति, २६२ पर स्वोपज्ञवृत्ति
पंचाशक, ५/१५,१७
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विशेषावश्यकभाष्य ४२२०-२६. अनुयोगद्वार हरिभद्रवृत्ति, पृ० २६ आवश्यकसूत्र ६/६ हरिभद्रवृत्ति पृ० ८३१ पंचाशके, १/२५ पर अभयदेव वृत्ति
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