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________________ 158 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन (जीव-जन्तुओं से रहित) और एषणीय (ग्रहण करने योग्य) आहार लेने का उपदेश दिया है। प्रासुक एवं एषणीय आहार की प्राप्ति होने पर सचित्त को छोड़कर अनेषणीय आहार को भी ग्रहण किया जा सकता है। परन्तु अचित्त भोजन के न मिलने पर सचित्त भोजन में अनन्तकाय और बहबीज वाले पदार्थों को लेने का निषेध किया गया है। आ० हेमचन्द्र ने भोज्य पदार्थों में मांस, मक्खन, मधु, उदुम्बर आदि पांच प्रकार के अनन्तकायिक फल, अज्ञात फल, रात्रि-भोजन, आम और गौरस में मिले हुए मूंग, चने, उड़द, मोठ आदि द्विदल (दालें), फूलन (काईपड़े हुए चावल, दो दिन बाद का दही, सड़ा बासी अन्न आदि वस्तुओं के सेवन का त्याग करने का उपदेश दिया है।' कर्म के बिना श्रावक जी नहीं सकता, इसलिए उसके त्याग का तो प्रश्न ही नहीं होता। आ० हरिभद्र लिखते हैं कि कर्म की अपेक्षा से श्रावक को अत्यन्त सावद्य कर्मों को छोड़कर निर्दोष कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। भोगोपभोग-परिमाणवत के अतिचार १. सचित्ताहार कन्द-मूलादि सचित्त (सजीव, सचेतन) भोज्य पदार्थों का सेवन। २. सचित्त-प्रतिबद्धाहार सचित्त वृक्ष से सम्बद्ध गोंद और आम आदि गुठली सहित पके फल, या खजूर, छुहारा आदि मेवे ग्रहण करना। ३. अपक्व-भक्षण बिना पके फल अथवा कच्चे शाक आदि का भक्षण। ४. दुष्पक्वाहार-भक्षण अधपके या अधिक पके भोज्य पदार्थों को खाना। ५. तुच्छ-औषधि-भक्षण जिन पदार्थों में खाने का अंश कम हो और फेंकने का अधिक, उन्हें ग्रहण करना। यथा - मूंगफली, सीताफल आदि। उक्त पांच अतिचारों में से तीन तत्त्वार्थसूत्र और हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में वर्णित अतिचारों के समान हैं शेष दो भिन्न हैं। यथा - १. सचित्ताहार २. सचित्त-संबद्धाहार, ३. सम्मिश्राहार, ४. अभिषवाहार और ५. दुष्पक्वाहार। इनमें 'सम्मिश्राहार' (सचित्त-सम्मिश्राहार) का अर्थ है- अचित्त पदार्थ के साथ मिले किसी सचित्त खाद्य पदार्थ को खाना। यथा - गेहूँ के आटे की बनी रोटी में पड़े गेहूँ के अखण्ड दाने को खाना या अचित्त जौ, चावल आदि को सचित्त तेल में मिलाकर लेना अथवा उबाले हुए पानी में कच्चा पानी मिलाना। तथा 'अभिषवाहार' का अर्थ है - अभिषव अर्थात अनेक द्रव्यों को मिलाकर बनाये हुए मादक पदार्थों जैसे मदिरा, सौवीर, ताड़ी, शराब, दारू आदि तथा भांग, तम्बाक, जर्दा, गांजा, चरस, आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना। ___ उपर्युक्त भोज्य पदार्थों से संबंधित अतिचार तो त्याज्य हैं ही, इनके अतिरिक्त कर्म में मलिनता पैदा करने वाले उन कठोर कर्मों का त्याग करना भी आवश्यक है, जिन्हें 'कर्मादान' कहा जाता है। कर्मादान उन कार्यों या व्यापारों को कहते हैं, जिनसे ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध होता है। इन कार्यों में १. योगशास्त्र,३/६,७ श्रावकप्रज्ञप्ति, २८५, स्वोपज्ञवृत्ति श्रावकप्रज्ञप्ति, २८६ तत्त्वार्थसूत्र.७/३०; योगशास्त्र. ३/६४ ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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