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________________ योग और आचार 157 शीलव्रतों का विभाजन जैन आचार्यों द्वारा गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के रूप में किया गया है। इनमें गुणव्रत बाह्य आचार को नियमित करते हैं और शिक्षाव्रत आन्तरिक शुद्धि को पुष्ट करते हैं।' गुणव्रत गुणव्रत तीन हैं - १. दिग्वत, २. अनर्थदण्डव्रत एवं ३. भोगोपभोग-परिमाणव्रत । कुछ ग्रन्थों में भोगोपभोग-परिमाणव्रत के स्थान पर 'देशव्रत' का उल्लेख मिलता है। १. दिग्व्रत जिस व्रत द्वारा दशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित कर तदनुसार नियम अंगीकार किया जाता है, वह 'दिग्व्रत' या 'दिशा-परिमाण' नामक प्रथम गुणव्रत है। इस व्रत में देश के दूरस्थ भागों एवं विदेशों में व्यवसाय द्वारा होने वाले शोषण सीमित हो जाते हैं। गमनागमन के मर्यादित हो जाने से चराचर प्राणियों की व्यर्थ हिंसा से भी निवृत्ति हो जाती है। आ० हेमचन्द्र लिखते हैं कि इस व्रत को अंगीकार करने से व्यक्ति लोभ पर नियंत्रण प्राप्त करने में समर्थ होता है।६ दिग्बत के अतिचार ऊर्यदिशा-प्रमाणातिक्रम प्रमादवश पर्वत, शिखर या वृक्ष पर मर्यादा से अधिक ऊँचा चढ़ना। २. अधोदिशा-प्रमाणातिक्रम भूमिगृह (तलघर), कुएँ आदि में मर्यादा से अधिक नीचे उतरना। ३. तिर्यग्दिशा-प्रमाणातिक्रम पूर्व आदि दिशाओं में मर्यादा से अधिक गमन। ४. क्षेत्रवृद्धि प्रमादवश स्वीकृत क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना। ५. स्मृत्यन्तराधान गमनागमन की मर्यादित सीमा को अतिव्याकुलता या प्रमादवश भूल जाना। २. भोगोपभोग-परिमाणवत श्रावक का दूसरा गुणव्रत 'भोगोपभोग-परिमाणवत' है। इस व्रत में अपनी शारीरिक व मानसिक शाक्ति के अनुसार भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं की संख्या की मर्यादा निर्धारित की जाती है। जो पदार्थ एक बार भोगने में आए (जैसे अन्न, जल, फूल आदि) वह 'भोग' कहलाता है और जिसका बार-बार उपभोग किया जा सके (जैसे वस्त्र, आभूषण, घर, बिछौना, आसन, वाहन आदि) उसे 'उपभोग' कहते हैं। भोजन और कर्म की अपेक्षा से उक्त व्रत दो प्रकार का होता है। आ० हरिभद्र के मतानुसार उक्त व्रतधारी श्रावक को भोजन की अपेक्षा सामान्य से निर्दोष आहार लेना चाहिए। उन्होंने श्रावक को प्रासुक * Big १. भारतीय दर्शनों में योग, पृ० १२४ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३६१-३८६; सागारधर्मामृत, ५/१; श्रावकप्रज्ञप्ति, २८०-२६१; धर्मबिन्दु, ३/१७; योगशास्त्र, ३/१:४/७३: रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३/२१ सर्वार्थसिद्धि.७/२१, हरिवंशपुराण, १८/४६, वसुनन्दिश्रावकाचार, २/१४-१६; आदिपुराण, १०/६५ श्रावकप्रज्ञाप्ति. २८०: योगशास्त्र, ३/१ श्रावकप्रज्ञप्ति. २८१: योगशास्त्र.३/२ योगशास्त्र. ३/२-३ श्रावकप्रज्ञप्ति, २८३. योगशास्त्र, ३/६६ योगशास्त्र, ३/४: श्रावकप्रज्ञप्ति, २८४, २८५ ६ योगशास्त्र, ३/५ श्रावकज्ञप्ति, २८५ ११. तत्र भोजनतः श्रावकेणोत्सर्गतो निरवद्याहारभोजिना भवितव्यम्। - श्रावकप्रज्ञप्ति. २८५, स्वोपज्ञवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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