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________________ 156 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन इच्छा-परिमाणव्रत के अतिचार' १. क्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम क्षेत्र (खुली जमीन, यथा - खेत, बगीचे, भूमि आदि) और वास्तु (मकान, दुकान आदि) दोनों के निश्चित परिमाण का अतिक्रम कर उन्हें बढ़ा लेना। २. हिरण्य-सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम चांदी और सोना या चांदी और सोने के बने हुए सिक्के, गहने व अन्य उपकरण आदि की जो मात्रा निश्चित की है, उसका अतिक्रम करना। ३. धन-धान्य-प्रमाणातिक्रम। धन (गणिम - गिनकर दी जाने वाली, धरिम - तोलकर दी जाने वाली, मेय - माप कर दी जाने वाली, परीक्ष्य - परीक्षा करके दी जाने वाली), धान्य(अनाज, दाल आदि) की जितनी मर्यादा निश्चित हो, उससे अधिक स्वयं रखना या दूसरे के यहाँ रखना। ४. द्विपद-चुष्पद-प्रमाणातिक्रम द्विपद (मनुष्य, पुत्र, स्त्री, दास-दासी आदि), चतुष्पद (गाय, भैंस, बैल, बकरी, हाथी, घोड़ा आदि) के रखने की जितनी संख्या निश्चित की हो, उससे अधिक रखना। ५. कुप्य-प्रमाणातिक्रम सोने-चांदी के अतिरिक्त हल्की धातुओं (कांसा, तांबा, लोहा, शीशा, जस्ता, गिल्ट, आदि) के बर्तन, चारपाई, पलंग, कुर्सी, सोफासैट, अलमारी, रथ, गाड़ी, मोटर, हल, ट्रैक्टर आदि खेती के साधन तथा घर व व्यापार में उपयोग में आने वाली अन्य वस्तुओं की जो मर्यादा निश्चित हो, उसका उल्लंघन करना। वस्तुतः ये पांचों ही व्रत गृहस्थ के लिए स्थूल रूप से पालनीय हैं। इनका सूक्ष्म रूप से पालन तो मुनि लोग ही कर सकते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने जैन-परम्परा सम्मत 'अणुव्रत' शब्द का योगसूत्र में कहीं स्पष्टतः उल्लेख नहीं किया। परन्तु उनका यह कथन कि जाति, देश, कालादि से सर्वथा अनवच्छिन्न होने पर अहिंसादि पांच यम 'महाव्रत' कहलाते हैं, अवच्छिन्न स्थिति में 'अणुव्रत' की स्थिति को स्वीकार करता प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त अहिंसादि यमों को योगांगों में प्रथम स्थान देने का तात्पर्य ही है, अणुव्रतों को स्वीकार करना, क्योंकि प्रारम्भ में कोई भी साधक इन व्रतों का सर्वथा पालन करने में समर्थ नहीं होता। वह उनका एकदेश, एककाल तथा एकजाति से पालन करता है। सर्वजाति, सर्वदेश तथा सर्वकाल से अनवच्छिन्न होकर पालन करने की स्थिति तो 'प्रत्याहार' नामक पांचवें योगांग में ही सम्भव है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि प्रथम 'यम' नामक योगांग अणुव्रत का ही द्योतक है। (ख) शीलव्रत जैनशास्त्रों में श्रावक के लिए वर्णित बारह व्रतों में से पांच अणुव्रतों की चर्चा पूर्व पृष्ठों में की जा चुकी है। शेष सात व्रतों को शीलव्रत' अथवा 'सप्तशील' के नाम से जाना जाता है। शीलव्रत का तात्पर्य है कि इन व्रतों का पालन साक्ष्यपूर्वक करना अनिवार्य होता है। यह शीलव्रत पूर्वोक्त अणुव्रतों की रक्षा में सहायक हुआ करते हैं। १. २. तत्त्वार्थसूत्र.७/२४: श्रावकप्रज्ञप्ति, २७८; योगशास्त्र, ३/६४ अमितगतिश्रावकाचार, १२/४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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