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________________ योग और आचार 155 स्वदारसंतोष, परदारत्याग या ब्रह्मचर्य-अणुव्रत के अतिचार' १. इत्वरपरिगृहीतागमन किराया देकर कुछ काल के लिए ग्रहण की गई किसी दूसरे की स्त्री या वेश्या के घर गमन । २. अपरिगृहीतागमन दूसरे के द्वारा यथाविधि ग्रहण न की गई स्त्री, अर्थात् वेश्या, कुलांगना आदि का उपभोग करना। ३. अनंग-क्रीड़ा अस्वाभाविक क्रियाओं द्वारा काम-सेवन। ४. परविवाहकरण अपनी सन्तान को छोड़कर कन्यादान के फल की इच्छा से दूसरों की सन्तान का विवाह कराना। ५. कामतीव्राभिनिवेश कामभोग में अत्यन्त आसक्ति। आ० हेमचन्द्र के अनुसार इस व्रत के अतिचार इस प्रकार हैं- १. इत्वरात्तागमन २. अनात्तागमन ३. परविवाहन ४. कामविषयक तीव्र अभिलाषा और ५. अनंगक्रीड़ा। आ० हेमचन्द्र ने इत्वरात्ता (इत्वर-परिग्रहीता) और अनात्तागमन इन दो अतिचारों का निर्देश केवल स्वदार संतोषी के लिए किया है। शेष तीन अतिचार दोनों के लिए कहे हैं। ५. इच्छा-परिमाण या परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत ___ इच्छाएँ असीम हैं, अनन्त हैं। इच्छा में अप्राप्त को प्राप्त करने की कामना होती है। मनुष्य के व्यवहारिक जीवन में प्रतिक्षण अनेक इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। जैसे आग में घी डालने से वह बुझने की अपेक्षा और अधिक प्रज्ज्वलित हो जाती है, वैसे ही इच्छाओं की पूर्ति करते रहने से वे और अधिक बढती जाती हैं। यदि उन पर नियन्त्रण न लगाया जाए तो वे कदापि तृप्त नहीं हो सकतीं। मनुष्य स्त्री, पुत्र व दासी-दास आदि द्विपद और हाथी-घोड़ा आदि चतुष्पद, सचित्त वस्तुओं तथा सुवर्ण-चांदी आदि अचित्त पदार्थों की इच्छा को मर्यादित करना 'इच्छा-परिमाण' अणुव्रत है। जब पदार्थों के प्रति इच्छा होती है तो उसको संग्रह करने की प्रवृत्ति भी बलवती होती है। जब इच्छाएँ परिमित हो जाती हैं और उनके प्रति ममत्व या मूच्र्छा कम हो जाती है तो साधक केवल जीवन-निर्वाह हेतु अपनी मर्यादा के अनुसार कम से कम पदार्थों को ग्रहण करता है। इसे अपरिग्रह भी कहते हैं क्योंकि विद्वानों के अनुसार मूर्छा ही परिग्रह है। अतः लोभ-कषाय को न्यून करके संतोषपूर्वक अपनी आवश्यकतानुसार इच्छाओं को सीमित करना 'परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत' कहा जाता है। आ० हेमचन्द्र ने परिग्रह के दोष बताते हुए परिग्रह को प्राणियों के उपमर्दन रूप संसार के मूल आरम्भों का हेतु बताया है और श्रावक को परिग्रह का परिमाण निश्चित करने का उपदेश दिया है।" १ तत्वार्थसूत्र, ७/२३: श्रावकप्रज्ञप्ति. २७३: रत्नकरण्डश्रावकाचार. ३/१४ योगशास्त्र. ३/१३ योगशास्त्र. ३/६३ स्वो० ० श्रावकप्रज्ञप्ति, २७५ मूर्छा परिग्रहः । - तत्वार्थसूत्र, ७/१२ असन्तोषमविश्वासमारम्भंदुःखकारणम् । मत्वा गृच्छफिलं कुर्यात् परिग्रह-नियन्त्रणम् ।। - योगशास्त्र. २/१०६ संसारमूलमारभ्मास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ।। - वही, २/११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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