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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
पूर्व अध्याय में किया जा चुका है। विशेष गृहस्थधर्म में बारह व्रतों का विधान किया गया है। इन व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं।
यद्यपि श्रावक इन व्रतों के पालन में पूर्णतः सजग रहता है, तथापि कभी-कभी प्रमादवश या अज्ञानवश उससे कुछ ऐसे कार्य हो जाते हैं जिनसे श्रावक को दोष लगने की संभावना होती है। उन दोनों को जैन-परम्परा में अतिचार की संज्ञा दी गई है। 'अतिचार' का अर्थ है - व्रत में आने वाला मालिन्य या विकार | जैन-परम्परा में प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार बताए गए हैं। अतिचारयुक्त व्रतों का पालन पुण्यकारक नहीं होता। अतः श्रावक को व्रतों के अतिचारों से यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए। व्रतधारी साधक को चाहिए कि किसी भी प्रयोजन के बिना इन दोषों का कदापि सेवन न करे। परन्तु घर-गृहस्थी का कर्तव्य निभाने के लिए विशेष प्रयोजनवश यदि अतिचारों का सेवन करना पड़े तो भी कोमलभाव से ही काम लेना चाहिए।
(क) अणुव्रत
व्रत का अर्थ है – हिंसा आदि (करने, करवाने और अनुमोदन करने) से विरति । अणुव्रत से तात्पर्य है - अहिंसादि व्रतों का स्थूलतः अथवा आंशिक, यथाशक्ति पालन या हिंसादि पापों से आंशिक विरति। श्रावक हिंसादि का पूर्णरूप से परित्याग न करके मर्यादित रूप से अहिंसादि व्रतों का पालन करता है, क्योंकि आरम्भादि गृहकार्यों को करते हुए गृहस्थ के लिए उनका पूर्ण रूप से त्याग शक्य नहीं है, इसलिए सर्वविरति रूप महाव्रतों की अपेक्षा से अहिंसादि व्रतों में 'अणु' विशेषण जोड़कर उन्हें अणुव्रत की संज्ञा दी गई है। मूल आगमग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र में यावज्जीवन के लिए दो करण एवं तीन योग (मन, वचन, काय) से स्थूल हिंसादि के त्याग को 'अणुव्रत' कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र, में हिंसादि पापों के एकदेशत्याग को 'अणुव्रत' की संज्ञा दी गई है। आ० सोमदेवसूरि ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह के एकदेशत्याग को 'अणुव्रत' कहा है। आ० हेमचन्द्र तथा पं० आशाधर ने स्थूल हिंसादि दोषों के त्याग को अणुव्रत माना है। __ इन्हें अणुव्रत कहने का कारण यह है कि बहुत बार साधक कठोर नियमों का पालन नहीं कर पाता
और उस स्थिति में सम्पूर्ण साधना से ही विरत हो जाता है। ऐसा न हो, इस दृष्टि से व्रतों को कुछ लघु रूप दिया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अणुव्रत एक प्रकार से लघुव्रत ही हैं।११ उदाहरण के लिए अहिंसा (प्राणातिपातविरमण) एक कठोर व्रत है। पतञ्जलि के अनुसार हिंसा के मूल में लोभ,
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१. तत्त्वार्थसूत्र,७/१५-१६: रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६६ २. श्रावकप्रज्ञप्ति,६
योगशास्त्र, ३/८६ सुखलाल संघवी, तत्त्वार्थसूत्र, पृ० ३०३ (क) हिंसायामनृते स्तेये मैथुनेऽथ परिग्रहे।
विरतिव्रतमित्युक्तं सर्वसत्त्वानुकम्पकैः ।। - ज्ञानार्णव, ८/५ (ख) तत्त्वार्थसूत्र, ७/१, १३-१७ उपासकदशांगसूत्र, (संपा० मधुकरमुनि), पृ० २६ तत्त्वार्थसूत्र, ७/२ यशस्तिलकचम्पू. ६/३०० विरति स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना।
अहिंसादीनि पंचाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ।। - योगशास्त्र, २/१३ १०. सागारधर्मामृत, ४/५ ११. अणुनि लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि। - अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग १, पृ०४१६
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