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________________ योग और आचार 151 क्रोध और मोह रहा करते हैं। अतः उनसे विरति के लिए इनका पूर्ण त्याग अपेक्षित होता है, जबकि अणुव्रत का साधक स्थूल प्राणातिपातविरमण से ही संतोष कर लेता है। इसी प्रकार मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष और इच्छापरिमाण का भी स्थूल रूप से पालन अणुव्रत में किया जाता है। स्मरणीय है कि प्राणातिपातविरमण आदि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नाम से यमों के रूप में पतञ्जलि के योगशास्त्र में अनिवार्य पालनीय व्रत के रूप में स्वीकत हैं, इसीलिए इन्हें सार्वभौम महाव्रत कहा गया है। अणव्रत संख्या में पांच हैं - १. स्थूल प्राणातिपातविरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादानविरमण ४. स्वदारसन्तोष तथा ५. इच्छापरिमाण। इन पांचों अणुव्रतों का पालन तीन योग एवं दो करणपूर्वक होता है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :१. स्थूल प्राणातिपातविरमण या अहिंसाणुव्रत प्रथम अणुव्रत में साधक स्थूल हिंसा का त्याग करता है, इसलिए इस व्रत को स्कूल प्राणातिपातविरमण' नाम से अभिहित किया गया है। 'स्थूल' शब्द से यहाँ अभिप्रेत है - बड़े अर्थात स्थावरों की अपेक्षा से त्रस जीवों की हिंसा न करना। यहाँ स्थूल शब्द से निरपराध और संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का भी त्याग करना अभीष्ट है। वस्तुतः हिंसा चार प्रकार की होती है- आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी/ आ० हरिभद्र ने संकल्प और आरम्भ के भेद से हिंसा को दो प्रकार का बताया है। आ० शुभचन्द्र ने संरम्भ, समारम्भ तथा आरम्भ तीन प्रकार की हिंसा का उल्लेख करते हुए हिंसा को तीन योगों (मन, वचन, काय) और चार कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) से गुणित करके हिंसा के एक सौ आठ भेद (३४३४३४४ % १०८) माने हैं। सभी जैनाचार्यों का मत है कि श्रावक केवल संकल्पी हिंसा का त्याग करता है जबकि साधु सब प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है।" उपा० यशोविजय ने हिंसा के विविध रूप का निरूपण किया है - १. दूसरों को कष्ट पहुँचाना, २. स्वयं शरीर का नाश करना, ३. दुष्ट भाव रखना। इसप्रकार स्पष्ट है कि शरीर से किसी के प्राणों को आघात पहुँचाना तो हिंसा है ही, साथ ही मन तथा वचन से किसी को दुःख पहुँचाना भी हिंसा ही है। उमास्वाति ने प्रमत्तयोग अर्थात् प्रमाद अथवा राग-द्वेष की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर प्राणों के व्यपरोपण (वध) को हिंसा कहा है। हिंसा की इस परिभाषा से जैनाचार्यों ने हिंसा के दो रूपों की ओर संकेत किया है - द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । मन, वचन और काय में राग-द्वेष १. पातंजलयोगसूत्र, २/३४ २. (क) स्थूलप्राणातिपातादिभ्योः विरतिरणुव्रतानि पंचेति। - धर्मबिन्दु, ३/१६ (ख) श्रावकप्रज्ञप्ति. १०६ एवं स्वो० वृत्ति ३. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३१ ४. धर्मबिन्दु, ३/१६; श्रावकप्रज्ञप्ति, १०६ एवं स्वो० वृत्ति: योगशास्त्र, २/१८ योगशास्त्र. २/१८ निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसासंकल्पस्त्यजेत् । - योगशास्त्र, २/१६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ०५३४ श्रावकप्रज्ञप्ति, १०७: योगशास्त्र, २/१६ ६. ज्ञानार्णव. ८/: तत्वार्थसूत्र. ६/६ श्रावकप्रज्ञप्ति, १०७: योगशास्त्र.२/१६ ११. गोम्मटसार. (जीवकाण्ड) २६; सागारधर्मामृत, २/८२.४/१०-१२ १२. पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापत्त्या-दुष्टभावतः । त्रिधा हिंसागगे प्रोक्ता न हीथमपहेतुका ।। - अध्यात्गसार, ४/१२/४१ १३. प्रगतयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा । - तत्त्वार्थसूत्र. ७/८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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