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________________ योग और आधार 149 ग्रहण करने के पश्चात् विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त अहिंसादि व्रतों का जीवन पर्यन्त पालन करने हेतु जो पुनः दीक्षा ग्रहण की जाती है, उसे छेदोपस्थापना-चारित्र' कहते हैं। इसमें साधक पूर्वगृहीत व्रतों का छेदन करके पुनः उपस्थापना करता है, इसलिए इसे उक्त नाम दिया गया है। ३. परिहारविशुद्धि-चारित्र ___ आत्मा की विशिष्ट शुद्धि हेतु जिस विशेष प्रकार के तप का आचरण किया जाता है उसे 'परिहारविशुद्धि-चारित्र' कहते हैं। ४. सूक्ष्मसंपराय-चारित्र जिसमें क्रोधादि कषाय क्षीण हो जाते हैं, केवल लोभ का अंश अतिसूक्ष्म रूप में अवशिष्ट रहता है, वह 'सूक्ष्मसंपराय-चारित्र' है। ५. यथाख्यात-चारित्र जिससे सूक्ष्मकषाय भी शान्त हो जाते हैं, वह निर्मल एवं विशुद्ध चारित्र 'यथाख्यात-चारित्र' कहलाता है। इस चारित्र का साधक जिनोपदिष्ट चारित्र का उसी रूप में पालन करता है, इसलिए इसे 'यथाख्यात-चारित्र' कहते हैं। यह पूर्ण वीतरागता की अवस्था है इसलिए इसे 'वीतराग-चारित्र' या 'निश्चय-चारित्र' भी कहा जाता है। पतञ्जलि के योगसूत्र में इसप्रकार के विभाजन की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई है। इसका कारण सम्भवतः योग-साधना के क्षेत्र में प्रवृत्त साधकों द्वारा स्मृतियों में वर्णित आचार-नियमों का अनिवार्यतः पालन करने का अभ्यास रहा है। जैन-परम्परा में अधिकारी-भेद से आचार का विभाजन किया गया है। कुछ आचार विषयक नियम श्रावकों के लिए अनिवार्य माने गए हैं और कुछ मुनियों के लिए। जैन-साधना-पद्धति में मुनियों के लिए अत्यन्त कठोर आचार व्यवस्था का विधान है, जबकि श्रावकों के लिए उनकी अपेक्षा सरल आचार विषयक नियम निर्धारित हैं। मूलतः इन आचार-नियमों के निर्धारण का उद्देश्य श्रावक को एक सामान्य व्यक्ति से ऊपर उठाकर अध्यात्म-पथ का पथिक बनाना ही है। व्यत्पत्ति के आधार पर 'श्रावक' शब्द में तीन पद हैं - श्रा, व और का श्रा' पद से तत्त्वार्थ श्रद्धान 'व' पद से धर्म क्षेत्र में धन रूप बीज बोने की भावना तथा 'क' पद से क्लिष्टकर्म अर्थात् महापापों से दूर रहने का संकल्प, अर्थ स्वीकृत है।' महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र में इस प्रकार का कोई विभाजन निर्दिष्ट न होने के कारण श्रावकाचार और श्रमणाचार का संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है। श्रावकाचार आ० हरिभद्रसूरि ने श्रावकाचार का विवेचन करते हुए 'श्रावक' अर्थात् गृहस्थ को दो वर्गों में विभाजित किया है 'सामान्य गृहस्थ' अर्थात् 'अविरत सम्यग्दृष्टि' तथा विशेष गृहस्थ' अर्थात् 'देशविरत सम्यग्दृष्टि। सामान्य गृहस्थधर्म का पालन करने के अनन्तर साधक विशेष गृहस्थधर्म के पालन का अधिकारी बनता है और तभी वह पूर्ण श्रावक बन पाता है। सामान्य गृहस्थधर्म के ३५ मार्गानुसारी गुण हैं जिनका वर्णन १ अन्ति-पचन्ति तत्त्यार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुणवत् सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्ट-कर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये 'श्रावका' इति भवति। - अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ७. पृ०७७६ २. धर्मविन्दु, १/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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