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________________ 148 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन निर्देश किया है। योगसूत्र के टीकाकार भावागणेश, नागोजीभट्ट आदि इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। पतञ्जलि स्वयं भी शौचसाधना के फल की चर्चा करते हुए सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य, एकाग्रता और इन्द्रियजय की चर्चा करते हैं। इससे स्पष्ट पता चलता है कि पतञ्जलि ने उपर्युक्त चित्तमलों की निवृत्ति के लिए यम-नियमों की साधना पर सर्वाधिक बल दिया है और उन्हें अष्टांगयोग में सर्वप्रथम स्थान दिया है। चारित्र के भेद : जैन आचारग्रन्थों में चारित्र पर विविध दृष्टियों से विचार करते हुए उसका निम्नलिखित प्रकार से विभाजन किया गया है - (क) निश्चय और व्यवहार-चारित्र' : रागादि विकल्पों से रहित शुद्ध आत्मस्वरूप में आचरण करना है जबकि अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप में प्रवृत्ति व्यवहारचारित्र है। दूसरे शब्दों में अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति 'व्यवहारचारित्रहै। (ख) सराग और वीतराग-चारित्र' : व्यवहारचारित्र को ही 'सरागचारित्र' और निश्चयचारित्र को 'वीतरागचारित्र' कहा जाता है। (ग) सकल और विकल-चारित्र : साधु एवं गृहस्थ की अपेक्षा से चारित्र के सकल और विकल दो भेद किये गये हैं। साधु मोक्ष-प्राप्ति हेतु निर्दिष्ट व्रतों को सूक्ष्म रीति से अर्थात् सर्वांशतः पालन करता है जबकि गृहस्थ सामाजिक एवं पारिवारिक कार्यों को करते हुए उन्हीं व्रतों का अंशतः पालन करता है। इसीलिए साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए पृथक-पृथक आचारों का विधान किया गया है। इन दोनों प्रकार के चारित्र को क्रमशः साधुधर्म, साध्वाचार, श्रमणाचार तथा गृहस्थधर्म, गृहस्थाचार, श्रावकाचार भी कहा जाता है। (घ) सामायिकादि पंचविध चारित्र : चारित्र के विकासक्रम को ध्यान में रखते हुए पांच प्रकार के चारित्र का भी वर्णन किया गया है - १. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, ३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्मसंपराय तथा ५. यथाख्यात १. सामायिक-चारित्र . समभाव में रहने के लिए संपूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना 'सामायिक-चारित्र' है। व्यवहारिक दृष्टि से हिंसादि बाह्य पापों से निवृत्ति भी 'सामायिक-चारित्र' है। जो थोड़े समय के लिए किया जाता है, वह 'इत्वरकालिक', और जो सम्पूर्ण जीवन के लिए किया जाता है वह 'यावत्कालिक सामायिक-चारित्र' कहलाता है। २. छेदोपस्थापना-चारित्र छेद का अर्थ है - भेदन करना या छोड़ना। उपस्थापना का अर्थ है - पुनः ग्रहण करना । प्रथम दीक्षां १. चित्तमलक्षालनरूपाच्छौचात्सत्त्वशुद्धिः सत्त्वोद्रेकः ततः सौमनस्यं स्वाभाविकी प्रीतिः। ततः प्रीतचित्तस्याविक्षेपादैकण्यम् । -भावागणेशवृत्ति पृ० १०२ २. ततः इन्द्रियजयस्ततश्चात्मसाक्षात्कारयोग्यता। - नागोजीभट्टवृत्ति पृ० १०२ सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च । - पातञ्जलयोगसूत्र, २/४१ बृहद्रव्यसंग्रह, ४५, ४६ एवं ब्रह्मदेववृत्ति; प्रवचनसार, १/६ पर तत्त्वदीपिकाटीका बृहद्रव्यसंग्रह. ४५, ४६ एवं ब्रह्मदेववृत्तिः प्रवचनसार १/६ पर तत्त्वदीपिकाटीका पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १६-१७. ४०-४१: रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५० ७. तत्त्वार्थसूत्र, ६/१८ ज्ञानार्णव, ८/२; प्रशमरतिप्रकरण, २२८ पर हरिभद्रटीका us Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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