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________________ योग और आचार (क) धर्म जीव और पुद्गल की गति ( गमन क्रिया) में जो सहायक कारण (माध्यम ) है उसे धर्म कहते हैं । " धर्म अमूर्त है, निष्क्रिय है और नित्य है । धर्म एक अखंड द्रव्य है, जो सारे लोक में व्याप्त है । (ख) अधर्म जिसप्रकार जीव और पुद्गल की गति में धर्म सहायक कारण है उसीप्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्म कारण है। धर्म के समान अधर्म भी अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य है । यह भी अखण्ड द्रव्य है और सर्वलोकव्यापी है। (ग) आकाश जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान ( आश्रय) देता है, वह आकाश है। आकाश नित्य और व्यापक, अनन्तप्रदेश वाला और अमूर्त है। जैन परम्परा में आकाश के दो विभाग किए गए हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश। जहाँ धर्म-अधर्मादि द्रव्यों की स्थिति है वह लोक है। इसके विपरीत जहाँ केवल आकाश की ही स्थिति है, अन्य द्रव्यों का पूर्णतः अभाव है, वह अलोक है। जैसे जल के आश्रयस्थान को जलाशय कहा जाता है उसीप्रकार लोक के आकाश को लोकाकाश और अलोक के आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल लोकाकाश में ही अवकाश ग्रहण करते हैं। अलोकाकाश में जीवादि किसी की सत्ता नहीं होती, केवल आकाश ही होता है। जैन - मान्यता के अनुसार आकाश जीवादि अन्य द्रव्यों का आश्रय स्थान है परन्तु स्वयं स्वप्रतिष्ठित है। आकाश का कोई आधार नहीं है। (घ) काल जीवादि द्रव्यों के परिणमन में निमित्त कारण को 'काल' कहा जाता है। काल अदृश्य है, अतः अनुमान के द्वारा ही इसके अस्तित्व का ज्ञान होता है। काल अनन्त है, अखण्ड है, सर्वत्र व्याप्त है, काल के एकदेशीय होने से उसका विस्तार नहीं होता, अतः वह अस्तिकाय नहीं है, किन्तु अस्तिकाय न होने पर भी यह एक सत्पदार्थ है, क्योंकि अन्य पदार्थों की वर्तना और परिणाम में यह परोक्षतः सहायक होता है।७ जैन- परम्परा में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के संबंध में आचार्यों में वैमत्य दृष्टिगोचर होता | कुछ आचार्य उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं और कुछ इसे स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह रूप मानते हैं। 143 (ङ) पुद्गल जैनदर्शन में लोकसंस्थान के षड़द्रव्यों में 'पुद्गल' को एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। 'पुद्गल' जैन १. २. 3. ४. तत्त्वार्थराजवार्त्तिक ५/१/१६: तत्त्वार्थसार, ७/३३,३४ तत्त्वार्थ सूत्र ५ / ४ तत्त्वार्थसार, ७/३५ नियमसार, ३० सर्वार्थसिद्धि ५/८/५४१ तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ जैनधर्मदर्शन, पृ० २१३ वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । तत्त्वार्थसूत्र, ५/२२ ८. भगवतीसूत्र. २५/४/७३४ उत्तराध्ययनसूत्र, २७ / ७ -८: तत्त्वार्थसूत्र, ५/५८ (श्वेताम्बर पाठ) ६. सर्वार्थसिद्धि ५/३८-३६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५/३६-४० पृ० ५०१-५०२ : तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ५/३८-३६ ५. ६. 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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