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________________ 142 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन जीव सामान्य का लक्षण उपयोग है।' उपयोग का अर्थ होता है - चैतन्यपरिणति। जीव का साधारण गुण चैतन्य है जिससे वह समस्त जड़ द्रव्यों से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। जैनदर्शन में जीव का स्वरूप बताते हुए उसे उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, स्वदेह परिमाण, भोक्ता, संसारी, सिद्ध तथा स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला बताया गया है। वहाँ प्रत्येक जीव को स्वभावतः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तसामर्थ्य आदि गुणों से सम्पन्न माना गया है। जैनाचार्यों के मतानसार जैसे रत्न की कान्ति. निर्मलता और शक्ति रत्न से अलग नहीं है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप लक्षण आत्मा से भिन्न नहीं है। परन्तु कर्मों से आबद्ध होने अर्थात् आच्छादित होने के कारण जीव में इन गुणों का आविर्भाव नहीं हो पाता। अपने द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों के प्रभाव से जीव के स्वाभाविक गुण आच्छादित रहते हैं। शुभ कार्यों के अनुष्ठान से जब कर्मावरण हट जाते हैं तब जीव को अपने यथार्थ स्वरूप का भान होता है। जीव सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं बद्ध (संसारी) और मुक्त। मुक्तजीवों-सिद्धों का पारमार्थिक दृष्टि से कोई प्रकार नहीं होता। व्यवहारिक दृष्टि से सिद्धों-मुक्तों के १५ भेद वर्णित किए गए हैं। संसारीजीव स्थावर और जंगम-भेद से दो प्रकार का होता है। जंगमजीव को जैनदर्शन में 'रस' की संज्ञा दी गई है। इन्द्रियों की संख्या के भेद से त्रसजीव के चार प्रकार होते हैं - पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय। संसारीजीव नारक, मनुष्य, तिर्यञ्च और देव-भेद से भी चार प्रकार का माना जाता है। सबसे निकृष्ट योनि स्थावरजीवों की होती है, क्योंकि इनमें केवल स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। २. अजीव यद्यपि जीव और अजीव दोनों द्रव्य सह अस्तित्व वाले हैं तथापि इनमें जीव जहाँ ज्ञान रूप है वहाँ अजीव अज्ञानरूप। इसी प्रकार जीव भोक्ता है तो अजीव भोग्य; जीव ज्ञाता है तो अजीव ज्ञेय; जीव चेतन है तो अजीव अचेतन।१ चैतन्य रहित सभी जड़ पदार्थ अजीव कहे जाते हैं। अजीव द्रव्य पांच प्रकार का है - धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल और काल।१२ भगवान ने लोक को पंचास्तिकाय रूप माना है।१३ ॐ १. भगवतीसूत्र, २/१०; उत्तराध्ययनसूत्र, २८/१०; तत्त्वार्थसूत्र, ३/८; प्रवचनसार, २/८३; आवश्यकसूत्र, हरिभद्रवृत्ति १०५७, पृ० ४१४; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, हरिभद्रवृत्ति १/४ धवलापुस्तक १५, पृ० ३३; सर्वार्थसिद्धि, १/४, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, १/४/७, षड्दर्शनसमुच्चय, ४३, ४४, पृ० १३८. जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढ़गई ।। - द्रव्यसंग्रह, २ एक एव हि तत्रात्मा स्वभावे समवस्थितः । ज्ञान-दर्शन-चारित्रलक्षणः प्रतिपादितः ।। - अध्यात्मसार, ६/१८/६ प्रभानैर्मल्यशक्तीनां यथा रत्नान्न भिन्नता। ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ।। - वही, ६/१८/७ षोड़शक, १/११ तत्त्वार्थसूत्र.२/१० स्थानांगसूत्र, १/२१४-२२; नन्दीसूत्र, २१ तत्त्वार्थसूत्र, १/१२ वही. १/१४ ११. तदविपर्ययलक्षणोऽजीवः। - सर्वार्थसिद्धि, १/४/१८ १२. तत्त्वार्थसूत्र, ५/१ १३. भगवतीसूत्र, १३/४/४८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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