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योग और आचार
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आस्रव या बन्ध में हो जाता है। जीव व अजीव इन दोनों के संयोग-वियोग से आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की सिद्धि होती है। जैनदर्शन की मान्यता है कि इन मूलभूत तत्त्वों के श्रद्धान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं।
इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि भारतीय दर्शन की सांख्य, वेदान्त, न्याय और वैशेषिक शाखाओं में श्रेय को आधार बनाकर दार्शनिक मीमांसा की गई है। इन विचारकों के अनुसार मूल तत्त्वों की संख्या में अन्तर है और इसका मुख्य कारण है- परस्पर दृष्टि का भेद। सांख्य के अनुसार केवल दो तत्त्व हैंत्रिगुणात्मक प्रकृति और पुरुष । योगदर्शन में मुख्यतः हेय और उपादेय दृष्टि से तत्त्वों के दो विभाग किए गए हैं। जिस प्रकार जैनदर्शन में बंध, आस्रव, मोक्ष और निर्जरा, इन चार तत्त्वों की चर्चा की गई है, उसीप्रकार योगदर्शन में भी हेय, हेयहेत, हान व हानोपाय रूप चतर्व्यह' का विवरण प्राप्त होता है।
जैनदर्शन में द्रव्यों का विभाजन एक दूसरे प्रकार से भी किया गया है। जैन मतानुसार जीव द्रव्य अरूपी है। अजीव द्रव्य के दो भेद हैं - रूपी और अरूपी। रूपी अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण से युक्त द्रव्य । रूपी द्रव्य को 'पुद्गल' कहा गया है। अरूपी द्रव्य के पुनः चार भेद हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, और काल । इसप्रकार द्रव्य के कुल छः भेद हो जाते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, जिन्हें षड्द्रव्य कहा जाता है।
उपर्युक्त षड्द्रव्यों में से प्रथम पांच द्रव्य असंख्यात प्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय हैं। और छठा काल द्रव्य एकप्रदेशी होने के कारण अनस्तिकाय है। 'अस्तिकाय' का अर्थ है - प्रदेश बहुत्व अर्थात् बहुदेशव्यापी। अनस्तिकाय का अर्थ है - एकदेशव्यापी। जैनदर्शन में काल एक ऐसा द्रव्य है जो एकदेशव्यापी है, इसलिए उसे 'अनस्तिकाय' नाम दिया गया है। मोक्ष-मार्ग में उपयोगिता की दृष्टि से ज्ञेय रूप में षड़द्रव्यों की अपेक्षा सात या नौ तत्त्वों का अधिक महत्व माना गया है, इसलिए यहाँ इनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है। १. जीय
जीव अथवा आत्मा एक अत्यन्त परोक्ष पदार्थ है, जिसे संसार के सभी दार्शनिकों ने तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयास किया है। स्वर्ग, नरक, मुक्ति आदि अति परोक्ष पदार्थों का मानना भी आत्मा के अस्तित्व पर ही आधारित है। वैदिक दर्शनों में आत्मा और जीव का भेद करते हुए जीव तत्त्व को कम महत्व दिया गया है। उनके मतानुसार मोक्षावस्था में आत्मा जीव-भाव से मुक्त हो जाता है। किन्तु जैनदर्शन में आत्मा और जीव में कोई भेद नहीं किया गया । जैनदर्शन में आत्मा के लिए अनेक नाम प्रयुक्त हैं जिनमें से जीव भी एक है।१०
१. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६ से ६ २. यथा चिकित्साशास्त्रम् चतुर्म्यहम् - रोगो, रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यम् इति । एषम् इदमपि शास्त्रं चतुर्दूहमेव, तद्यथा-संसारः,
संसारहेतुः, मोक्षो मोक्षोपायः इति। - व्यासभाष्य, पृ० २१८ ३. भगवतीसूत्र, २/१०/११७, स्थानांगसूत्र, ५/४४१
तत्त्वार्थसूत्र, ५/५ सर्वार्थसिद्धि.५/४/५३३ गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ५८८; उत्तराध्ययनसूत्र, २८/७ तत्त्वार्थसूत्र, ५/१-३ सर्वार्थसिद्धि.५/१/५२७ । द्रव्यसंग्रह, २४ स्थानांगसूत्र, १० (क) जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा।
पुमानात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययाः ।। - आदिपुराण, २४/१०३ (ख) षोडशक, यशोविजयवृत्ति, १/११
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